Quantcast
Channel: जड़ी बूटी – Hindi स्वास्थ्य ब्लॉग
Viewing all 114 articles
Browse latest View live

बृहती Brihati (Solanum indicum) in Hindi

$
0
0

बृहती एक औषधीय वनस्पति है। वार्ताकी, क्षुद्राभंटाकी, महती, कुली, हिंगुली, राष्ट्रिका, सिंही, महोष्ट्री, दुष्प्रधर्षणी, बड़ी कटेरी, वनभंटा आदि इसके संस्कृत पर्याय हैं। हिंदी में इसे बड़ी कटेरी, बड़ी भटकटैया, बड़ी कंटेली, बंगाली में भांटा, तिक्त बेगन, मराठी में मोठी डोलरी, गुजराती में डभीभोटीत्रिणी, तामिल में चेरुचुंट और लैटिन में सोलेनम इंडिकम कहते हैं।

आयुर्वेद में वृहती को बहुत अधिक प्रयोग किया जाता है। यह दशमूल Dashmula में प्रयोग की जाने वाली दस जड़ों में से एक है। यह लघु पञ्च मूल LaghuPancha Mula में आती है जिसमें अन्य चार जड़ें हैं, शालपर्णी, पृश्नीपर्णी, छोटी कटेरी और गोखरू। दशमूल शरीर में सूजन और वात-व्याधि के उपचार में प्रयोग की जाने वाली एक बहुत ही उत्तम दवा है। इसमें ज्वर/बुखार और सूजन को कम करने के गुण हैं। दशमूल खांसी, गैस, भूख न लगना, थकावट, ख़राब पाचन, बार-बार होने वाला सिरदर्द, पार्किन्सन, पीठ दर्द, साइटिका, सूखी खांसी, आदि में भी बहुत ही उपयोगी है।

Arayilpdas at ml.wikipedia [CC BY-SA 3.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0) or GFDL (http://www.gnu.org/copyleft/fdl.html)], via Wikimedia Commons
Arayilpdas at ml.wikipedia [CC BY-SA 3.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0) or GFDL (http://www.gnu.org/copyleft/fdl.html)], via Wikimedia Commons
बड़ी कटेरी, आलू और बैंगन के कुल का पौधा है। यह न केवल भारत में बल्कि श्री लंका, मलेशिया, चीन तथा फिलिपाइन्स में भी मिलती है। यह एल उष्ण जलवायु का पौधा है और बीजों से उगता है। बड़ी कटेरी के पुष्प नीले-बैंगनी होते हैं। इसके फल, बेरी होते हैं व कच्चे में हरे और सफ़ेद धारियों से युक्त होते हैं। पौधे में बहुत से कांटे होते है।

वृहती पौधे के फल और जड़ में वैक्स फैटी एसिड्स तथा अल्कालॉयड सोलामाइन और सोलानीडीन पाए जाते हैं। आयुर्वेद में अकेले इसका उपयोग प्रसव बाद कमजोरी, उलटी, अस्थमा, कफ आदि में किया जाता है। यह शोथ हर है और शरीर की सूजन को दूर करती है। मूत्रल होने से इसका प्रयोग मूत्र रोगों में होता है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: सोलेनम इंडिकम
  • कुल (Family): सोलेनेसिएई
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: मुख्य रूप से जड़ें और फल
  • पौधे का प्रकार: झाड़ी
  • वितरण: पूरे भारत में
  • पर्यावास: गर्म, सूखे और रेतीली मिट्टी में

स्थानीय नाम Vernacular names / Synonyms

  1. वैज्ञानिक नाम: सोलेनम इंडिकम
  2. संस्कृत: Akranta, Asprasi, Bahupatri, Bhantaki, Brahati, Brihatika, Dovadi, Dusparsa, Hinguli, Kshudrabhanta, Kshudrabhantaki, Kshudravartaki, कुली, Mahati, Mahatikranta,
  3. Mahotika, Sinhi, Sinhika, Tprani, Vanavrintaki, Vartaki, Vyaghri
  4. असमिया: Tilabhakuri
  5. बंगाली: Byakud, Byakura, Brihati Begun, Baikur, Byakur, Gurkamai, Phutki, Phutki Begoon, Tit Begun
  6. अंग्रेज़ी: भारतीय नाइट शेड, Poison Berry, सोलेनम
  7. गुजराती: Umimuyaringani, Ubhibharingani, Ubhibhuyaringa, Ubhi-ringan
  8. गारो: Titbahal
  9. हिन्दी:Vanabharata, Badikateri, Jangli bhata, Bari-khatai, Birhatta, Barhanta
  10. कन्नड़: Kirugullia, Heggulla, Gulla
  11. मलयालम: चेरू Vazhuthina, Putirichunda, Cheruchunta
  12. मराठी: Dorli, Chichuriti, Dorale, Dorh, Mothi-ringani
  13. उड़िया: Dengabheji
  14. पंजाबी: Kandiarivaddi
  15. तमिल: Chiru vazhuthalai, Papparamulli, Mullamkatti, Mulli, Pappara-mulli
  16. त्रिपुरा: Khanka
  17. व्यापार नाम: Bari kateri
  18. तेलुगु: Tella Mulaka, Tellamulaka
  19. उर्दू: Kateli
  20. यूनानी: Kateli

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: एस्टीरिडेएइ Asteridae
  • आर्डर Order: ऐस्टेरेल्स Asteridae
  • परिवार Family: सोलेनेसिएई Solanaceae
  • जीनस Genus: सोलेनम Solanum
  • प्रजाति Species: सोलेनम इंडिकम Solanum indicum

बृहती के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

बृहती स्वाद में कटु और तिक्त है।

कटु रस जीभ पर रखने से मन में घबराहट करता है, जीभ में चुभता है, जलन करते हुए आँख मुंह, नाक से स्राव कराता है जैसे की सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली, लाल मिर्च आदि। तिक्त रस, वह है जिसे जीभ पर रखने से कष्ट होता है, अच्छा नहीं लगता, कड़वा स्वाद आता है, दूसरे पदार्थ का स्वाद नहीं पता लगता, जैसे की नीम, कुटकी। यह स्वयं तो अरुचिकर है परन्तु ज्वर आदि के कारण उत्पन्न अरुचि को दूर करता है। यह कृमि, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूर्छा, ज्वर, उत्क्लेश / जी मिचलाना, जलन, समेत पित्तज-कफज रोगों का नाश करता है। इस रस के अधिक सेवन से धातुक्षय और वातविकार होते हैं।

  • रस (taste on tongue): कटु, तिक्त
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु
  • कर्म: दीपन, हृदय, अनुलोमना, वातशामक, कफशामक, शोथहर

यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत।

उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाकशरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।

बृहती के औषधीय प्रयोग

  1. बृहती मुख्य रूप से सांस सम्बन्धी रोगों, कफ, वात, अरुचि, सूजन और अग्निमांद्य रोगों की दवा है। यह हृदय के लिए हितकारी, गर्म, पाचक, कडवी और दर्द में आराम देने वाली है। इसके सेवन से खून साफ़ होता है और पेशाब की मात्रा बढती है।
  2. बृहती के बीजों का सेवन बाजीकारक और गर्भाशय को संकोचन कराने वाला है। यह कंठ के लिए अच्छी औषधि है और हिक्का को दूर करती है।
  3. यह कफघ्न, ज्वरघ्न, कुष्ठघ्न, और कफ-वात शामक है।
  4. इसकी जड़ का काढ़ा बना कर मुश्किल प्रसव, प्रसव बाद टॉनिक के रूप में, पेशाब रोगों जैसे की पेशाब में दर्द, रुक-रुक के पेशाब आना, कफ तथा सांस रोगों में अच्छे परिणाम देता है।
  5. काढ़ा बनाने के लिए इसकी जड़ का सूखा मोटा-मोटा पाउडर पंसारी के यहाँ से खरीद लें। इस पाउडर को 5-6 ग्राम की मात्रा में लेकर एक गिलास पानी में उबाल लें जब तक पानी आधा कप हो जाए तो इसे छान कर पियें।
  6. दवा की तरह निश्चित मात्रा में लेने से इसका कोई हानिप्रद असर नहीं होता।

औषधीय मात्रा

  • 5-6 gram जड़ का काढ़ा बनाकर औषधि के रूप में लिया जाता है।
  • जड़ के चूर्ण अथवा फल के चूर्ण को 1-2 gram की मात्रा में खा सकते हैं।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।
  2. यह मूत्रल है और इसका सेवन पेशाब अधिक लाता है।
  3. यह शरीर में कफ को कम करता है और रूक्षता लाता है।
  4. इसे ३-४ महीने तक प्रयोग कर सकते है।
  5. यह तासीर में उष्ण / गर्म है।

जिमीकंद सूरन Suran Medicinal Uses in Hindi

$
0
0

जिमीकन्द, सूरण, कन्द, ओल, ओला, कांदल, अर्शोघ्न Sooran, Zamikand, Jimikand आदि सूरन के नाम हैं। पूरे भारत में इसे एक सब्जी के रूप पकाकर खाया जाता है। सूरन को केवल धो-काट कर नहीं पकाया जाता अपितु इसे काटने के बाद नींबू, इमली, फिटकिरी या सिरके के पानी में उबाल कर ही छिल कर फिर इसकी सब्जी को बनाते हैं। ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि इस कन्द में कैल्शियम ऑक्सालेट तथा एक कड़वा जूस होता है जो खट्टे पानी में उबालने पर ही दूर होता है। यदि ऐसा न किया जाये तो यह खाने पर मुंह और गले में तेज़ जलन करता है।

भारत में सूरन का आचार भी बनता है। आचार का सेवन पित्त को बढ़ाता है और वायु को कम करता है। यह फाइबर युक्त होता है और पुराने कब्ज़ और पाइल्स में लाभ करता है। आयुर्वेद में तो इसे अर्शोघ्न नाम दिया गया है जिसका अर्थ होता है, अर्श अथवा पाइल्स को नष्ट करने वाला।

By Aruna at Malayalam Wikipedia (Own work) [GFDL (http://www.gnu.org/copyleft/fdl.html), CC-BY-SA-3.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0/) or CC BY-SA 2.5-2.0-1.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/2.5-2.0-1.0)], via Wikimedia Commons
By Aruna at Malayalam Wikipedia (Own work) [GFDL (http://www.gnu.org/copyleft/fdl.html), CC-BY-SA-3.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0/) or CC BY-SA 2.5-2.0-1.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/2.5-2.0-1.0)], via Wikimedia Commons
बवासीर के अतिरिक्त इसे ब्रोंकाइटिस, दमा, खांसी, अपच, पेट में दर्द, फ़ीलपाँव, त्वचा और रक्त रोग, नालव्रण, गर्दन की ग्रंथियों में सूजन, मूत्र रोगों और जलोदर के उपचार में एक दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है।

यह यकृत रोगों में विशेष रूप से उपयोगी है। पुरानी कब्ज और बवासीर के रोगियों के लिए यह एक अच्छी सब्जी है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: एमोरफोफैलस कैमपैनुलेटस
  • कुल (Family): लिली परिवार
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: कन्द
  • पौधे का प्रकार: छोटा पौधा
  • वितरण: पूरे भारत में इसकी खेती होती है
  • पर्यावास: गर्म, नम क्षेत्र
  • स्थानीय नाम / Synonyms
  • वैज्ञानिक नाम: Amorphophallus campanulatus
  • संस्कृत: Soorana, Kandula, Arshoghna, Kandayak, Gudaamaya-hara, Kandala, Suranah
  • बंगाली: ओले Ole
  • अंग्रेज़ी: Elephant-foot Yam, Elephant Yam, Cheeky yam, Corpse flower, Corpse plant, Telinga Potato, Voodo lily
  • गुजराती: सुरण
  • हिन्दी: सूरन, सूरण
  • कन्नड़: Suvarna gadde
  • मलयालम: Chena, Kattuchena, Kattuchenai
  • सिद्ध: Karnsa
  • तमिल: Karunai Kizhangu
  • तेलुगु: Mancai Kanda Durada Gadda
  • यूनानी: Soorana, Zamin-qand, Zamikand
  • अरबी: Batata el-feel
  • बांग्लादेश: Ol
  • चीन: Bai Ban Mo
  • म्यांमार: Wa

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: लिलीओप्सीडा Liliopsida
  • सबक्लास Subclass: ऐरेसीडीएई Arecidae
  • आर्डर Order: ऐरेल्स Arales
  • परिवार Family: ऐरेसिऐइ Araceae
  • जीनस Genus: एमोरफोफैलस Amorphophallus
  • प्रजाति Species:एमोरफोफैलस कैमपैनुलेटस Amorphophallus campanulatus

पोषण प्रति 100 ग्राम सूरन में

  1. ऊर्जा 70 किलोजूल
  2. पानी 80 ग्राम
  3. प्रोटीन 1.2 ग्राम
  4. फैट 0.1 ग्राम
  5. फाइबर 0.8 ग्राम
  6. कार्बोहाइड्रेट 18.4 ग्राम
  7. ओक्सालिक एसिड 1.3 ग्राम
  8. खनिज 0.8 ग्राम
  9. कैल्शियम 50.0 मिलीग्राम
  10. फास्फोरस 34.0 मिलीग्राम
  11. आयरन 0.6 मिलीग्राम
  12. थायमिन 0.06 मिलीग्राम
  13. राइबोफ्लेविन 0.07 मिलीग्राम
  14. नियासिन 0.7 मिलीग्राम
  15. कैरोटीन 260 मिलीग्राम
  16. विटामिन ए 434 I.U.

सूरन के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

सूरन स्वाद में कटु, तिक्त गुण में रूखा करने वाला और हल्का है।

कटु रस तीखा होता है और इसमें गर्मी के गुण होते हैं। गर्म गुण के कारण यह शरीर में पित्त बढ़ाता है, कफ को पतला करता है। यह पाचन और अवशोषण को सही करता है, क्लेद/सड़न, मेद, वसा, चर्बी, मल, मूत्र को सुखाता है और अधिकता में सेवन करने से शुक्र धातु को नष्ट करता है।

तिक्त रस, वह है जिसे जीभ पर रखने से कष्ट होता है, अच्छा नहीं लगता, कड़वा स्वाद आता है, दूसरे पदार्थ का स्वाद नहीं पता लगता तथा इसके अधिक सेवन से धातुक्षय और वातविकार होते हैं।

स्वभाव से यह गर्म है और कटु विपाक है। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है। कटु विपाक, द्रव्य आमतौर पर वातवर्धक, मल-मूत्र को बांधने वाले होते हैं। यह शुक्रनाशक माने जाते हैं। और शरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।

  • रस (taste on tongue): कटु, तिक्त
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

कर्म:

  • कृमिघ्न: कृमि नष्ट करने वाला
  • अर्शोघ्न: [पाइल्स नष्ट करने वाला
  • रुच्य: भोजन में रूचि बढ़ाने वाला
  • वेदनाहर: दर्द दूर करने वाला
  • पित्तकर: पित्त बढ़ाने वाला
  • कफहर: कफ नष्ट करने वाला
  • दीपन: पाचन को अच्छा करने वाला
  • रक्तपित्तकर: ब्लीडिंग डिसऑर्डर करने वाला
  • दाद्रुकर: दाद करने वाला

सूरन प्लीहा और गुल्म को नष्ट करता है। यह बवासीर में पथ्य है। आयुर्वेद में सभी शाकों में इसे श्रेष्ट माना गया है।

रोग जिसमें सूरण का सेवन लाभप्रद है:

  1. बवासीर/अर्श/पाइल्स
  2. पेट के रोग
  3. अस्थमा, ब्रोंकाइटिस
  4. लीवर के रोग
  5. स्प्लीन का बढ़ जाना

सूरन की औषधीय मात्रा

सूरन को सब्जी की तरह खाया जा सकता है। औषधि की तरह प्रयोग करने के लिए इसके पाउडर का प्रयोग अधिक करते हैं।

पाउडर बनाने से पहले इसे शोधित करना ज़रूरी है। इसके लिए सूरन को इमली, नींबू युक्त पानी में उबाला जाता है। उबले हुए सूरन को पानी से निकाल कर छिल लिया जाता है और छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर धूप में सुखा लेते हैं। पूरी तरह से सूख जाने पर इसका चूर्ण बना लेते हैं।

इस चूर्ण को 5-10 ग्राम की मात्रा में औषधि की तरह प्रयोग कर सकते हैं।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह पित्त को बढ़ाता है। इसलिए पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
  2. अधिक मात्रा में सेवन पेट में जलन, एसिडिटी, आदि समस्या कर सकता है।
  3. जिन्हें पेट में सूजन हो gastritis, वे इसका सेवन न करें।
  4. शरीर में यदि पहले से पित्त बढ़ा है, रक्त बहने का विकार है bleeding disorder, हाथ-पैर में जलन है, अल्सर है, छाले हैं तो भी इसका सेवन न करें।
  5. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।
  6. इसे दाद, कोढ़, रक्त पित्त में नहीं खाना चाहिए।

पथरचट्टा Kalanchoe pinnata के बारे में जानकारी और उपयोग

$
0
0

पथरचट्टा, पथरचूर, पर्णबीज, पाथरकूची, आदि केलेंचोए पिन्नाटा पौधे के नाम हैं। इसे कुछ लोग पाषाण भेद के नाम से भी जानते है। पाषाणभेद PashanBheda पौधे की सही पहचान संदिग्ध है और बहुत से पौधे जो की अश्मरी Stones अथवा पथरी के उपचार में प्रयोग होते हैं, पाषाणभेद कह दिए जाते है। क्योंकि पथरचट्टा में अश्मरीघ्न गुण हैं तथा यह मूत्रल diuretic भी है इसलिए इसे भी पाषाणभेद की ही तह पथरी के उपचार में प्रयोग किया जाता है।

पथरचट्टा के पत्तों में बहुत से औषधीय गुण विद्यमान हैं जिस कारण इसे आंतरिक आर बाह्य दोनों ही प्रकार से प्रयोग किया जाता है। बाहरी रूप से लगाने से खून का बहना, घाव, जलना आदि में यह लाभ करता है। पत्तों का सेवन मुख्य रूप से पथरी तथा मूत्र रोगों urinary disorders के उपचार में होता है।

Read in English Here Medicinal use of Patharchatta or Kalanchoe Pinnata

patharchatta medicinal uses
Forest & Kim Starr [CC BY 3.0 (http://creativecommons.org/licenses/by/3.0)], via Wikimedia Commons
पथरी के अतिरिक्त इसे पेचिश, गैस बनना, फोड़े, फुंसी, घाव, कटना, जलना, अल्सर, बालों में रूसी, कान के दर्द, सर में दर्द, सूजन, पीलिया, लिकोरिया, आदि में भी प्रयोग किया जाता है। यह तासीर में ठंडा होता है। इसे अश्मरीभेदक, मूत्रल, वात-पित्त-कफ शामक, रक्तपित्तशामक, और दर्द निवारक माना गया है। लोक चिकित्सा में इसे उच्च रक्तचाप और गाउट की समस्या में भी प्रयोग किया जाता है। यह शरीर को ठंडक देने वाला cooling और किडनी-लीवर की रक्षा करने वाला पौधा है।

पथरचट्टा का पौधा कैसे लगायें

पथरचट्टा के पौधे को उगाना बहुत ही आसान है। यह बहुत देखभाल वाला पौधा नहीं है और छाया में भी लगाया जा सकता है। पथरचट्टा पौधा बहुत ऊँचा नहीं होता और गमले में भी बहुत सरलता से लग जाता है और बढ़ता है। यदि एक बार यह पौधा लग जाता है तो स्वतः ही आस-पास की जमींन या गमलों में, जहाँ भी इसके पत्ते गिरते हैं, फ़ैल जाता है। इस पौधे में बीज नहीं होते और पत्तों से ही नए पौधे उगते हैं। यही कारण है इसे पर्णबीज के नाम से भी जाना जाता है। पत्तों को यदि पानी में या जमीन में डाल दे तो कुछ ही दिनों में पत्तों के मार्जिन से धागे की तरह जड़ें निकलने लगती है। धीरे-धीरे बहुत से जड़ें निकलती है और फिर छोटी-छोटी पत्तियां निकलती हैं। एक ही पत्ते से कई पौधे पैदा हो जाते है। पौधे को लगाने के लिए मिट्टी इस प्रकार की हो जिसमें बहुत पानी न रुके.

पथरचट्टा को रोज़ पानी देने की आवश्यकता नहीं है. तीन से चार दिन के गैप पर इसमें पानी डालें।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: Kalanchoe pinnata
  • कुल (Family): क्रेसुलेसीएइ
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पत्ते
  • पौधे का प्रकार: क्षुप
  • वितरण: भारत के गर्म और नम भागों में खासकर के पश्चिम बंगाल में प्रचुर मात्रा में। एशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, वेस्टइंडीज, गैलापागोस, मेलानेशिया, पोलिनेशिया और हवाई के अन्य शीतोष्ण क्षेत्रों में
  • पर्यावास: नम, गर्म और छायादार स्थान

स्थानीय नाम / Synonyms

  1. वैज्ञानिक नाम: Kalanchoe Pinnata
  2. संस्कृत नाम: Parn beej, hemsagar, Asthibhaksha, Parnabija, Parnabijah पर्ण बीज, हेमसागर
  3. अंग्रेजी: Air plant, Good luck leaf, Hawaiian air plant, Life plant, American Life Plant, Floppers, Cathedral Bells, Air Plant, Life Plant, Miracle Leaf, Goethe Plant, Wonder of the World, Mother of Thousands
  4. हिन्दी: Patharchattam, Patharchur, Pather Chat, Paan-futti पत्थरचूर
  5. बंगाली: Koppat, Patharkuchi, Gatrapuri, Kaphpata, Koppata, Pathorkuchi
  6. मलयालम: Elachedi, Elamulachi, Ilamarunnu, Ilamulachi
  7. तेलुगु: Ranapala
  8. तमिल: Runa Kalli
  9. यूनानी: Zakhm-hayaat, Zakhm-e-Hayaat, Pattharchoor, Pattharchat ज़ख्म हयात, ज़ख्मे-हयात
  10. सिद्ध: Ranakkalli
  11. चकमा: Jeos, Jeus, Patharkuchi, Roah-Kapanghey
  12. त्रिपुरा: Jeos, Naproking, Pathorkuchi

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपर डिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सब क्लास Subclass: रोसीडए Rosidae
  • आर्डर Order: रोज़ेल्स Rosales
  • परिवार Family: क्रेसुलेसीएइ Crassulaceae (Stonecrop family)
  • जीनस Genus: केलेंचोए Kalanchoe
  • प्रजाति Species: क्लांचोए पिन्नाटा Kalanchoe pinnata

इस प्रजाति के और भी लैटिन नाम हैं,

  1. ब्रायोफिलम पिनाटम Bryophyllum pinnatum (Lam.) Oken
  2. ब्रायोफिलम कैलीसिनम Bryophyllum calycinum Salisb.
  3. कॉटीलीडोन पिनाटा Cotyledon pinnata Lam.

पथरचट्टा के पत्तों के औषधीय गुण

  • अश्मरीघ्न antiurolithiatic: किडनी, ब्लैडर, युरेटर में स्टोंस घुला देना या बनने न देना
  • मूत्रवर्धक diuretic: उत्सर्जित मूत्र की मात्रा बढ़ना
  • एसट्रिनजेंट Astringent: चोट, कट आदि पर लगाने से खून के बहने को रोक देना
  • एनाल्जेसिक analgesic: दर्द में राहत
  • एंटीडाइरिअल anti-diarrheal: राहत या पेचिश रोकना
  • एंटीइन्फ्लेमेटरी Anti-inflammatory: सूजन को कम करना
  • एंटीसेप्टिक antiseptic: संक्रामक एजेंटों के विकास में बाधा कर संक्रमण से बचाना
  • आक्षेपनाशक antispasmodic: अनैच्छिक पेशी की ऐंठन से राहत देना
  • कीटाणुनाशकantibacterial: बैक्टीरिया को नष्ट करना
  • इम्यूनोमॉड्यूलेटरी immunomodulatory: प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया या प्रतिरक्षा प्रणाली के कामकाज को संशोधित करना

पथरचट्टा के पत्तों के औषधीय प्रयोग

पथरचट्टी के पौधे में अल्कालोइड्स, फेनोल्स, फ्लावोनोइड्स, टैंनिंस, एंथोसायनिन्स, ग्लाइकोसाइड्स, बुफडीएनओलिडस, सैपोनिन्स, कूमैरिन्स, सिटोस्टेरोल्स, क्विनिन्स, कैरोटेनॉयड्स, टोकोफ़ेरॉल, लेक्टिंस आदि हैं जो इसे एंटीकैंसर, एंटीऑक्सीडेंट इम्मुनोमोड्यूलेटिंग, एन्टीबॅक्टेरियाल, ऐनथेलमेन्टिक, एन्टीप्रोटोज़ोअल, न्यूरोलॉजिक (सेडेटिव एन्टीकवुलसेंट), एंटी -इंफ्लेमेटरी, एनाल्जेसिक, डियूरेसिस, एंटीयूरोलिथितिक, नेफ्रोप्रोटेक्टिवे, हेपेटोप्रोटेक्टिव,एंटी पेप्टिक अलसर, हाइपोटेन्सिव, एंटीडियाबेटिक और वुंड हीलिंग गुण देते हैं।

  1. पथरचट्टा पथरी की समस्या stone problems में बहुत लाभकारी है। जिन लोगों को बार-बार पथरी होने की शिकायत रहती है, वे इसका नियमित प्रयोग कर सकते हैं। यह पौधा, पथरी में फायदा करता है क्योंकि इसमें मूत्र की मात्रा को बढ़ाने और पत्थर को घुलाने के गुण है।
  2. यह किडनी और मूत्र मार्ग kidney and urinary stones के स्टोंस में फायदेमंद है क्योंकि जब पथरी का आकर छोटा हो या इसके नियमित सेवन से वह छोटी हो गयी हो तो मूत्र के माध्यम से यह शरीर के बाहर निकल जायेगी। लेकिन गाल-ब्लैडर की पथरी में ऐसी कोई संभावना नहीं है।
  3. गालब्लैडर gall bladder से पथरी के बाहर निकलने वाला कोई मार्ग नहीं है। इसलिए गाल ब्लैडर की पथरी में ज्यादातर मामलों में ओपरेशन की ही ज़रूरत पड़ती है। अच्छा तो ही यही होता है जैसे ही आपको इसका पता लगे उसे डॉक्टर को दिखा कर निकलवा लें। नहीं तो यदि यह वहां से निकल गई तो फिर मामला गंभीर हो जाएगा। यह गाल ब्लैडर से निकल कर आगे पतले रास्ते में फंस जायेगी और तब पीलिया, लीवर का इन्फेक्शन आदि हो जाएगा और तब किया जाने वाला ओपरेशन भी बड़ा होगा।
  4. पथरचट्टा मूत्रल है इसलिए मूत्र सम्बन्धी रोगों जैसे की कम पेशाब आना, रुक-रुक के आना, पेशाब का रुक जाना, पेशाब में जलन, आदि में इसका सेवन लाभकारी है। शरीर में यदि पानी की मात्रा अधिक हो water retention, सूजन हो, प्रोस्ट्रेट समस्या हो तो भी इसका प्रयोग करके देखें।
  5. स्त्रियों में प्रदर की समस्या leucorrhoea/white discharge, पेचिश, उलटी, पेट में जलन, शरीर में अधिक गर्मी, पित्त के रोग, रक्तपित्त bleeding disorder, पीलिया jaundice, बुखार, में भी इसे प्रयोग कर सकते हैं।
  6. पेट के अल्सर gastric ulcer में भी इन पत्तों का सेवन लाभ करता है। बाहरी रूप से पत्तों को पीस का पेस्ट के रूप में फोड़े, फुंसी, घाव, जलना, कतना, छिलना, आदि पर लगाते हैं।

पथरचट्टा के सेवन से शरीर पर कोई भी हानिकरक प्रभाव side-effects नहीं होते। इसे प्रयोग करना भी अत्यंत सरल है। दवा की तरह प्रयोग करने के लिए, सुबह व शाम इसके दो से तीन पत्ते चबा कर खाएं। यदि इसमें दिक्कत हो तो पत्तों को पीस लें और निकले रस को पी लें।

पथरचट्टा के कुछ पत्तों का रोजाना सेवन लम्बे समय तक किया जा सकता है। यह शरीर पर किसी भी प्रकार का हानिकारक प्रभाव नहीं डालता। चूहों पर किये एक अध्ययन ने दिखाया पथरचट्टा का प्रयोग गर्भावस्था में बच्चे के विकास पर किसी तरह का बुरा प्रभाव नहीं डालता। प्रयोग के दौरान देखा गया की जिन फीमेल चूहों को यह दिया गया था उनका वज़न गर्भवस्था में अधिक बढ़ा।

पालक Spinach information, benefits and Medicinal Uses in Hindi

$
0
0

पलक्या, वास्तुकाकारा, छुरिका, मधुरा, और चीरितच्छदा पालक के संस्कृत नाम है। इसे हिंदी में पालक का शाक, पालकी, सागपालक, इस्फंज, बंगाली में पालंड़ शाक, फ़ारसी में अस्पनाख, और इंग्लिश में स्पाईनेज spinach और लैटिन में स्पिनेसिया ओलेरेसिऐइ कहते है।

पालक का साग पूरे भारतवर्ष में खाया जाता है। इसकी आलू – बैंगन के साथ सब्जी बनती है जो बहुत ही पौष्टिक होती है। आलू भंटा साग, बनाना भी बहुत सरल है। बनाने के लिए, २-३ आलू, एक बैगन और एक गड्डी पालक को अच्छे से साफ़ कर लिया जाता है। आलू और बैंगन को पतला-पतला काट लेते है। पालक को भी अच्छे से चोप chop कर लेते हैं। कढ़ाही में सरसों का तेल २-३ चम्मच की मात्रा में डाल कर गर्म करते हैं। इसमें जीरा, लाल मिर्च का तड़का लगते हैं। फिर बारीक कटा लहसुन डाल कर भूरा होने तक तलते हैं। अब आलू, पालक और बैंगन सभी को कढ़ाही में डाल, स्वादानुसार नमक डाल कर चालते है और तब तक पकाते हैं जब तक आलू गल न जाए। कुछ मिनट में ही सब्जी तैयार हो जाती है।

Palak ke fayade

चना दाल या अरहर ही दाल में भी पालक डाल कर पालक की दाल बनायी जाती है। पालक की दाल बनाने के लिए, पालक को बारीक़ काट लेते है। कुकर में दाल धो लेते लें इसमें आवश्यकता अनुसार पानी डालते है, लहसुन-अदरक को कुचल कर डालते है और थोड़ी सी हींग भी डालते है। कटा कुआ पालक डालते है और एक सिटी आने के बाद 5-10 मिनट तक पकाते है। दाल पाक जाने पर लहसुन और जीरा का तड़का लगाते है।

पालक को उगाना भी बहुत सरल है और आप इसे घर पर गमलों में भी उगा सकते हैं। उगाने के लिए गमले में मिट्टी इस प्रकार ही होनी चाहिए जिसमें पानी न रुके नहीं तो पालक के पौधे गल जायेंगे। बीजों को लोकल नर्सरी या पूसा केन्द्रों से खरीद सकते हैं। वहां पर एक पैकेट जिसमें 50-100 बीज होते हैं दस-बीस रुपये में मिल जायेंगे। बीजों को गमले में तब डालें जब तापमान 25 डिग्री से कम हो। पालक के बीजों को जमीन में बहुत अन्दर नहीं दबाना चाहिए। बस मिट्टी पर रख हाथों से बिखेर दें और थोड़ी से मिट्टी से ढक दें। तीन से दस दिनों में पौधे उग जायेंगे। जब पत्ते बड़े हो जाए तो पत्तों को काटें पर पूरे पौधे को न उखाड़ें। आप इन पौधे से पूरी सर्दी पत्ते ले सकते हैं। पालक के पौधे में ज्यादा तापक्रम होने पर बोल्टिंग, बीज निकलना, हो जाती है और तब यह खाने योग्य नहीं रहता।

आयुर्वेद में पालक को शाक वर्ग में रखा गया है और इसे वातकारक, शीतल, श्लेष्मवर्धक, दस्तावर, भारी, आध्य्मानकारक माना गया है। यह मद, श्वास, पित्त, रक्त तथा पित्त के विकारों से होने वाले रोगों को दूर करने वाला है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: स्पिनेसिया ओलेरेसा Spinacia oleracea Synonym Spinacia tetrandra Roxb.
  • कुल (Family): चेनोपोडिऐसिए Chenopodiaceae
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पत्ते
  • पौधे का प्रकार: हर्ब
  • वितरण: यह पूरी दुनिया में सब्जी की तरह खाए जाने के लिए उगाया जाता है। पालक को पर्शिया native to Persia का पौधा माना जाता है।
  • पर्यावास: यह ठंडी जलवायु का पौधा है।

स्थानीय नाम / Synonyms

  • English: Garden Spinach
  • Ayurvedic: Palankikaa, Palankya, Palakya
  • Unani: Paalak
  • Siddha: Vasaiyila-keerai

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: कैरयोफीलीडए Caryophyllidae
  • आर्डर Order: कैरयोफिलेल्स Caryophyllales
  • परिवार Family: चेनोपोडिऐसिए – गूज़फुट फॅमिली Chenopodiaceae
  • जीनस Genus: स्पिनेसिया Spinacia
  • प्रजाति Species: स्पिनेसिया ओलेरेसा L। – स्पिनच Spinacia oleracea

पालक में पाए जाने वाले यौगिक

पालक के पत्तों में करीब 80-90% पानी, नाइट्रोजनअस पदार्थ 4%, फैट 0.5%, और फाइबर 1% पाया जाता है।

  • ट्रिटेरपेन सैपोनिन्स: स्पिनच सैपोनिन्स A and बी और दूसरे सैपोनिन्स
  • ऑक्जेलिक एसिड: नयी पत्तों में 6-8%, और पुराने पत्तों में 16% तक
  • हिस्टामिन: 140 mg/100 gm तक
  • फ्लावोनोइड्स : पटलेटिन , स्पिनॅसटिन ,स्पिनॅटोसिड तथा दूसरे फ्लावोनोइड्स
  • क्लोरोफिल: 0.3-1.0%
  • विटामिन्स : एस्कॉर्बिक एसिड (vitamin C, 40-155 mg/100 g)
  • नाइट्रेट्स: फ़र्टिलाइज़र के हिसाब से 0.3-0.6%

रोग जिनमे पालक खाना लाभदायक है

  1. अनीमिया anemia
  2. अस्थमा asthma
  3. उच्च रक्तचाप high blood pressure
  4. डायबिटीज diabetes
  5. दिखाई कम देना eyes sight weakness
  6. कम इम्युनिटी low immunity
  7. टोक्सिंस toxins
  8. पेट के रोग indigestion

पालक खाने के फायदे

  1. यह एक सुपर फ़ूड है।
  2. इसमें प्रोटीन होता है और मसल्स बिल्डिंग में मदद करता है।
  3. यह रोचक है और जलन में आराम देता है।
  4. यह तासीर में ठंडा है और शरीर में अधिक गर्मी को कम करता है।
  5. यह शरीर में पित्त को कम करने वाली सब्जी है।
  6. अधिक पित्त के कारण होने वाली बिमारियों जैसे की एसिडिटी, ब्लीडिंग डिसऑर्डर, नकसीर फूटना, गुदा से खून गिरना आदि में इसके सेवन से लाभ होता है।
  7. यह जल्दी पच जाता है।
  8. इसमें लोहा, विटामिन सी, और विटामिन A, E, K प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
  9. यह खून को साफ़ detoxify करता है।
  10. यह शरीर को ताकत देता है।
  11. यह अन्दर की रूक्षता internal dryness को कम करता है।
  12. इसमें फाइबर होता है जिस कारण यह कब्ज़ दूर करता है।
  13. यह फोलिक एसिड folic acid का अच्छा स्रोत है।
  14. यह शरीर में एसिडिटी कम करता है और एल्कलाइनिटी alkalinity को बढ़ाता है।
  15. इसमें Lutein and zeaxanthin एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो आँखों को डैमेज से बचाता है।

पालक के औषधीय उपयोग

  1. यह सुपाच्य और पौष्टिक सब्जियों में से एक है।
  2. पालक का सेवन शरीर में हिमोग्लोबिन के लेवल को बढ़ाता है।
  3. पालक के काढ़े को ज्वर, फेफड़ों या आंत की सूजन में दिया जाता है।
  4. सुबह-सुबह ताज़ी पालक को कुचल के उसका रस पीने से पेट साफ होता है।
  5. पालक के बीज विरेचक और ठंडक cooling and laxative देने वाले होते हैं।
  6. पालक के बीजों का सेवन पीलिया, लीवर की सूजन, और साँस लेने की दिक्कत में किया जाता है।
  7. गले में यदि जलन हो रही हो तो इसके रस से कुल्ले करना चाहिए।
  8. पत्तों का रस मूत्रवर्धक diuretic है।
  9. आतों के रोगों gastrointestinal tract diseases में पालक की सब्जी खाने से लाभ होता है।
  10. ततैया के काटे पर पालक का रस लगाना चाहिए।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. पालक के सेवन का स्वास्थ्य पर हानिप्रद प्रभाव नहीं होता।
  2. चार महीने तक के शिशु को पालक न दें।
  3. इसमें ओक्सालिक एसिड oxalic acid है जो की कैल्शियम के अवशोषण को कम करता है.
  4. ओक्सालिक एसिड होने के कारण किडनी को ज्यादा काम करना पड़ता है। कुछ रोगों जैसे की किडनी स्टोंस, आर्थराइटिस,रूमेटिज्म गाउट में ओक्सालिक एसिड को न लेने या कम मात्रा में लेना चाहिए।
  5. जिन लोगों को कम ओक्सालिक एसिड लेने की सलाह हो वे इसका कम मात्रा में सेवन करें।
  6. पालक में नाइट्रेट high nitrate content की मात्रा अधिक होती है।
  7. बहुत देर तक पालक को स्टोर न nitrates may be converted to nitrites करें।
  8. पालक का सेवन गैस ज्यादा बनाता है.

गुड़हल Hibiscus rosa-sinensis Information, Medicinal Uses and Side-effects in Hindi

$
0
0

जपापुष्प, जपा, त्रिसंधा औंड्रपुष्प, आदि गुड़हल के आयुर्वेदिक नाम है। हिंदी में इसे ओडहल, गुलहल, जवा, गुडहर और गुड़हल कहते हैं। बंगाली में इसे जपा फुलेर गाँछ और गुजराती में जासुदें और तमिल में इसे मंदार पुष्प कहते हैं। इसका अंग्रेजी में नाम शूफ्लावर और लैटिन में हिबिस्कस रोज़ासाईनेंसिस है।

गुड़हल एक औषधीय वनस्पति भी है। आयुर्वेद में इसे ग्राही dry the fluids of the body, केशों के लिए हितकारी बताया गया है। जपापुष्प स्निग्ध smooth, शीत cool in potency, व पिच्छिल slimy होता है। इसका काढ़ा ज्वर और कास में लाभप्रद है। सूजाक में इसे दूध, चीनी और जीरा के साथ दिया जाता है। जब मासिक में अधिक खून जाता हो तो इसे सेमल की जड़ के रस के साथ दिया जाता है।

gudhal medicinal uses

गुड़हल का पेड़ प्रायः उद्यानों में लागाया जाता है। यह पुष्पों के रंगों के अनुसार कई प्रकार का होता है। इसके पत्ते शहतूत जैसे होते हैं। पुष्प खिलने का समय वर्षा और ग्रीष्म है। यह हर प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है और पीली मिट्टी में अधिक मिलता है। दवाई की तरह पुष्पों, कलियों और पत्तों का प्रयोग किया जाता है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: हिबिस्कस रोज़ा-साईनेंसिस
  • कुल (Family): मॉलवेसिएई
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पुष्प, कलियाँ और पत्ते
  • पौधे का प्रकार: झाड़ी
  • वितरण: बगीचों में

स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत: Japa, Japapushpa, Raktapushpi, Japakusuma
  2. हिंदी: Jasut, Jasun, Gudhal
  3. अंग्रजी: Chinese hibiscus, Chinese rose, Rose of China
  4. बंगाली: Joba
  5. गुजराती: Jasuva
  6. कन्नड़: Daasavala, Kempu daasavala, Kempu pundrike
  7. मलयालम: Ayamparathi, Chembarathi
  8. तेलुगु: Java pushapamu, Dasana
  9. तमिल: Separuti
  10. उड़िया: Mondaro
  11. असाम: Joba
  12. पंजाबी: Jasun

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • आर्डर Order: माल्वेल्स Malvales
  • परिवार Family: मॉलवेसिएई
  • जीनस Genus: हिबिस्कस Hibiscus
  • प्रजाति Species: हिबिस्कस रोज़ा-साईनेंसिस Hibiscus rosa-sinensis

हिबिस्कस रोज़ा-साईनेंसिस के संघटक Phytochemicals

एंथोस्यानिंस, फ्लावोनोइड्स, सायनिडिन-3,5-डाईग्लुकोसिड, सायनिडिन-3-सोफोरोसइड-5-ग्लुकोसिड, क्वर्सेटिन-3,7-डाईग्लूकोसिड, क्वर्सेटिन-3-डीग्लूकोसिड, सायक्लोपेप्टिडे अल्कलॉइड, सायनिडिन क्लोराइड, क्वर्सेटिन, राइबोफ्लेविन, एस्कॉर्बिक एसिड, थियामिन

औषधीय गुण Biomedical Action

  1. गर्भस्रावक Abortifacient
  2. गर्भनिरोधी Antifertility
  3. दर्दनाशक Analgesic
  4. एपिलेप्सीरोधी Anticonvulsive
  5. एस्ट्रोजनरोधी Antiestrogenic
  6. आरोपणरोधी Anti-implantation
  7. शोथरोधी Anti-inflammatory
  8. आक्षेपनाशक Antispasmodic
  9. ओवुलेशन रोधी Antiovulatory
  10. फंगलरोधी Antifungal
  11. वाइरस रोधी Antiviral
  12. डायबिटिक रोधी Antidiabetic
  13. गर्भनिरोधक Contraceptive
  14. सेंट्रल नर्वस सिस्टम को दबाना CNS depressant
  15. शांतिदायक Demulcent
  16. मूत्रवध॔क Diuretic
  17. आर्तवजनक Emmenagogue
  18. रक्तचाप कम करना Hypotensive
  19. तापक्रम कम करना Hypothermic

गुड़हल का प्रयोग निम्न रोगों में विशेष रूप से लाभप्रद है

  1. गर्भपात Abortion
  2. रक्त प्रदर Menorrhagia
  3. कफ वाली खांसी Bronchitis
  4. कफ Cough
  5. दस्त Diarrhoea
  6. बाल बढ़ाने के लिए Hair Growth

गुड़हल के औषधीय प्रयोग Medicinal Uses of Shoe flower / Gudhal/ Hibiscus in Hindi

गुड़हल का आयुर्वेद में विभिन्न रोगों में प्रयोग किया जाता है। इसके पत्तों, कलियों और पुष्पों का प्रयोग स्त्री रोगों, त्वचा रोगों और बालों सम्बन्धी समस्याओं में फायदेमंद है।

यदि कई महीने तक गुडहल की कलियों और पुष्पों का सेवन किया जाए तो स्त्री और पुरुषों दोनों में ही फर्टिलिटी anti-fertility कम हो जाती है। जहाँ इसकी कलियों और पुष्पों के सेवन से पुरुषों में शुक्राणुओं low sperm count की संख्या कम हो जाती है वहीं महिलाओं में ओवरी से अंडाणु निकलना ovulation रुकता है, निषेचित होने पर आरोपण नहीं anti-implantation होता और यदि आरोपण हो गया हो तो गर्भ गिर abortion/miscarriage जाता है। कुछ शोध भी इस बात को सही सिद्ध करते है। भारत में कई जन जातियां भी इसे गर्भस्राव कराने, प्रसव बाद प्लेसेंटा निकालने और प्रसव शुरू करने के लिए इसे उपयोग करते हैं।

गुड़हल का बालों की देखबाल में भी प्रयोग किया जाता है। इसे बालों में डेंड्रफ, गंजापन, बालों का बहुत अधिक गिरना आदि में बाहरी रूप से तेल में पका कर लागाते हैं।

स्त्री रोग gynecological problems

  1. पुष्पों का काढ़ा पीरियड की शिकायत को दूर करने के लिए किया जाता है।
  2. इसे प्रसव के बाद प्लेसेंटा को निकालने के लिए दिया जाता है।
  3. स्त्रियों में, यदि पुष्पों का सेवन पूरे महीने किया जाए तो गर्भ नहीं ठहरता।
  4. 5 ग्राम फूलों के पेस्ट को 1 चम्मच शहद के साथ मिलाकर, खाली पेट तीन दिन लेने से गर्भ गिर abortifacient जाता है।
  5. मासिक न आने पर कुछ पुष्पों का सेवन किया जाता है।
  6. लिकोरिया में पत्तों का चूर्ण 5 ग्राम की मात्रा में दिन में दो बार लें।

रक्त प्रदर (Abnormal uterine bleeding

  1. रक्त प्रदर Rakta Pradara (Abnormal uterine bleeding) उस रोग को कहा जाता है जिसमें गर्भाशय uterus से असामान्य रक्तस्राव bleeding होता है तथा शरीर में कमजोरीweakness, एनीमिया anemia और पीठ दर्द pain in lower back आदि की शिकायतें होती हैं। रक्त प्रदर में गर्भाशय से उत्पन्न रक्तस्राव योनि vagina द्वारा होता है।
  2. रक्त प्रदर को मेडिकल टर्म में मेट्रोरेजिया Metrorrhagia के नाम से जाना जाता है। ग्रीक भाषा का शब्द मेट्रोरेजिया, दो शब्दों से मिल कर बना है, मेट्रा=गर्भाशय और रेजिया= अधिक मात्रा में स्राव; मेट्रोरेजिया का अर्थ है गर्भ से अधिक स्राव। रक्त प्रदर में मेट्रोरेजिया के अतिरिक्त शामिल है, मासिक का बहुत दिनों तक जारी रहना prolonged flow of blood और मासिक में बहुत अधिक रक्त बहना excessive blood flow जिसे मेडिकल टर्म में मेनोरेजिया menorrhagia कहा जाता है। असल में रक्त प्रदर वह रोग है जिसमें गर्भाशय से असामान्य रूप से खून का स्राव होता है।
  3. 5-10 ग्राम कलियों का पेस्ट दूध के साथ दिन में दो बार लिया जाता है।
  4. लाल गुडहल के पांच फूल पानी के साथ पीस के लेने से अधिक रक्तस्राव में लाभ होता है।

हर्बल कॉण्ट्रासेप्टिव natural contraceptive

  1. यदि इसकी 10 कलियाँ पूरे महीने नियमित रूप से महिला के द्वारा खा ली जाएँ तो बच्चा नही ठहरता।
  2. यदि बच्चा ठहर गया हो तो भी एबॉर्शन हो जाता है।

बालों का गिरना, डेंड्रफ hair problems

  1. पुष्पों-कलियों/ पत्तों का पेस्ट नहाने से एक घंटा पहले पीस कर बालों में लगाते हैं। अथवा
  2. गंजेपन में, बालों को लम्बा करने के लिए, पत्तों का रस निकाल कर नारियल तेल में उबालें। जब सारा पानी उड़ जाए और केवल तेल बचे तो इसे छान लें और रख लें। इसे बालों में नियमित लागायें। अथवा
  3. पुष्पों की पंखुड़ियों को सुखा कर नारियल के तेल में पका लें और इस तेल को रोजाना बालों में लगाएं।

सेक्सुअल डिसऑर्डर sexual disorders

कलियों का रस + लवंग, के साथ दिया जाता है।

पाइल्स piles

कलियों का पेस्ट प्रभावित स्थान पर लगायें।

पेट के कीड़े intestinal parasites

पत्तों का पेस्ट सेवन किया जाता है।

खून साफ़ करने के लिए, फोड़े-फुंसी, रक्त विकार के कारण होने वाले स्किन डिसीज

रोजाना दस कलियाँ एक महीने तक खाएं।

कार्बंगकल carbuncles

पत्तों का पेस्ट नींबू के रस मिलाकर बाहरी रूप से लगाया जाता है।

पेशाब में जलन burning urination

पत्तों का काढ़ा बनाकर पीने से लाभ मिलता है।

पाचन के रोग digestive disorder

  • रोजाना २ लाल फूल खाएं।
  • पत्तों का रस + चीनी के साथ लें।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह तासीर में ठण्डा है तथापि इसका सेवन गर्भावस्था में न करें। यह गर्भ नष्ट कर देगा।
  2. पुष्पों का सेवन स्त्री-पुरुष दोनों में, फर्टिलिटी को कम करता है।
  3. इनका नियमित सेवन गर्भनिरोधन contraceptive करता है।
  4. पुरुषों में यह स्पर्म को बनने से रोकता anti-spermatogenic है।
  5. स्त्रियों मे यह एम्ब्रोय को आरोपित strong anti-implantation नहीं होने देता।

अगस्त –अगस्तिया Agastya (Sesbania Grandiflora) Tree in Hindi

$
0
0

अगस्त, अगस्त्य, अगति, मुनिद्रुम, मुनिवृक्ष, मुनिपुष्प, वंगसेन, आदि अगस्तिये के संस्कृत नाम हैं। इसे हिंदी में हथिया, अगथिया या अगस्त कहते है। इसे बंगाली में बक, गुजराती में अगथियो, तेलुगु में अनीसे, अविसी, तमिल में अगस्ति और सिंहली में कुतुरमुरंग, अंग्रेजी में सेस्बेन और लैटिन में सेस्बानिया ग्रांडीफ्लोरा के नाम से जाना जाता है।

कुछ पाश्चत्य विशेषज्ञों का कथन है, यह भारत वर्ष का नहीं है अपितु बाहर के देशों से लाया गया वृक्ष है। किन्तु यह बात सत्य नहीं लगती। ऐसा इसलिए है की वैदिक ऋषि अगस्त्य इसी पेड़ के नीचे बैठ के तपस्या करते थे और इसी कारण इसे अगस्त्य नाम मिला। सुश्रुत ने भी इसका वर्णन किया है। इसलिये ऐसा मानना की यह वृक्ष कहीं बाहर से लाया गया है, गलत है।

agastya

अगस्त पूरे भारत में उगाया जाता है। यह मुख्य रूप से नम और गर्म जगहों में पाया जाना वाला पेड़ है और बंगाल में काफी संख्या में पाया जाता है। प्राकृतिक रूप से यह तराई -भावर वाले वनों में मिल जाएगा। यह बहुत अधिक पानी वाले इलाकों में भी आराम से रहता है। इसकी अतिरिक्त जड़ें इसे पानी में खड़े रहने में मदद करती है। यह बाड़ वाले इलाकों में भी पनप जाता है।

अगस्त एक औषधीय वृक्ष है। औषधीय प्रयोजन हेतु इसके पत्ते, जड़, फल, बीज, छाल सभी कुछ प्रयोग किया जाता है। इसकी छाल में टैनिन और लाल रंग का राल निकलता है। इसके पत्तियों में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, विटामिन A, B और C होता है। पुष्पों में भी विटामिन B और C पाया जाता है। बीजों में 70% प्रोटीन और एक तेल पाया जाता है।

अगस्त शीतल, रूक्ष, वातकारक, कड़वा होता है। यह स्वाद में फीका होता है। यह पित्त, कफ और विषम ज्वर नाशक है। इसके सेवन से प्रतिश्याय / खांसी-जुकाम दूर होता है। यह खून को साफ़ करता है और मिर्गी का नाशक है। यह कफ को दूर करने वाली औषध है। इसकी छाल कसैली, चरपरी, तथा बल कारक है। इसके पत्तों और फूलों के नस्य लेने से माथे का कफ के कारण भारीपन, सिर में दर्द, और जुखाम नष्ट होता है। कफ की अधिकता होने पर इसे शहद अथवा मूली के रस के साथ लिया जाता है।

बाहरी रूप से, अगस्त के पत्तों और धतूरे के पत्ते बराबर मात्रा में पीस कर सूजन पर बांधते हैं।

सामान्य जानकारी

अगस्त के पेड़ बहुत अधिक बड़े नहीं होते। इसकी डालियाँ घनी होती है। इसका तना सीधा होता है। पत्तियां इमली की पत्तें जैसी होती है। जब यह वृक्ष छोटे होते हैं तभी से इन पर फूल आने लगते हैं।

पेड़ पर अगस्त के महीने से पुष्प आते हैं। पुष्प चन्द्र की तरह मुड़े हुए होते हैं। आयुर्वेद में लाल, सफ़ेद, पीले और नीले रंग के पुष्प वाले अगस्त के पेड़ वर्णित हैं। ज्यादातर तो इसके सफ़ेद और लाल प्रकार ही देखे जाते हैं। पुष्प निकलने के कुछ समय बाद फल आते हैं। फल शिम्बी / फली रूप में होते हैं और उनमें दस-पंद्रह की संख्या में बीज होते हैं।

  • पत्तों, फूलों, मुलायम शाखों और फलियों का साग बनाया जाता है।
  • वानस्पतिक नाम: सेस्बेनिया ग्रांडीफ्लोरा
  • कुल (Family): मटर कुल
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पूरे वृक्ष
  • पौधे का प्रकार: पेड़
  • वितरण: पूरे भारतवर्ष में
  • पर्यावास: गर्म तथा प्रचुर मात्रा में जल वाले क्षेत्र

स्थानीय नाम

  • लैटिन: Sesbania grandiflora
  • संस्कृत: आगस्त्य, मुनिद्रुम, अगाती, अगस्त्य, दीर्घफलक, दीर्घशिम्बि, कनाली, खरध्वंसी, मुनिद्रुम, मुनीप्रिय, मुनिपुष्प, मुनितरु, पवित्र, रक्तपुष्प, शीघ्रपुष्प, शुक्लपुष्प, स्थूलपुष्प ,सुरप्रिय, वक, वक्रपुष्प
  • हिंदी: अगस्तिया, अगस्त, गति, बसना
  • इंग्लिश: Sesbane, Hummingbird Tree, Agathi, Sesban, Swamp pea
  • गुजराती: Augthiyo
  • मलयालम: Agathicheera, Agathi
  • मराठी: Augse gida, Hadga
  • कन्नड़: Agastya
  • तमिल: Agati, Acham, Agatti, Akatti-keerai, Kariram, Muni, Peragatti, Sewagatti
  • तेलुगु: Agise, Agase
  • म्यांमार: Pauk-pan-phyu, Pauk-pan-ni
  • सिन्हलीज: Katuru-murunga

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपर डिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सब क्लास Subclass: रोसीडए Rosidae
  • आर्डर Order: फेबेल्स Fabales
  • परिवार Family: फेबेसिऐइ Fabaceae ⁄ Leguminosae
  • जीनस Genus: सेस्बेनिया Sesbania
  • प्रजाति Species: सेस्बेनिया ग्रांडीफ्लोरा Sesbania grandiflora

अगस्त के औषधीय प्रयोग Medicinal Uses of Agastya in Hindi

अगस्त के पुष्प पित्तनाशक, कफनाशक और ज्वरनाशक होते हैं। इनका सेवन शरीर में वात को बढ़ाता है। यह तासीर में ठंडा है और शरीर में रूक्षता पैदा करता है। इसके सेवन से कफ, खांसी जुखाम आदि नष्ट होते हैं। पुष्पों का सेवन बुखार, रतौंधी, और प्रतिश्याय में लाभकारी है।

अगस्त के पत्ते कड़वे, कसैले, तासीर में कुछ गर्म, पचने में भारी होते हैं। पत्ते मुख्य रूप से कफ रोगों, खुजली, विष और जुखाम आदि में आंतरिक रूप से प्रयोग किये जाते हैं।

अगस्त की फली, विरेचक, रुचिकारक, मस्तिष्क के लिए अच्छी, सूजन नष्ट करने वाली और गुल्म नाशक है। वृक्ष की छाल संकोचक, पाचक और टॉनिक है। छाल को मुक्य रूप से काढ़ा बनाकर प्रयोग किया जाता है।

रात को न दिखाई देना, रतौंधी, आँखों के रोग night blindness, eye disorders

  • अगस्त के पत्तों और फूलों से बने साग का सेवन हितकारी है। अथवा
  • पुष्पों का रस, 2-3 बूँद की मात्रा में नाक में टपकायें। अथवा
  • पत्तों को पीस लें। अब पत्तों से चार गुना गाय का घी लेकर उसमें पकाएं। जब घी सिद्ध हो जाए तो छान कर रख लें। इस घी को 1-2 चम्मच की मात्रा में सुबह-शाम खाएं।

मिर्गी epilepsy

इसके फूलों + काली मिर्च + गो मूत्र, को लेने से लाभ मिलता है।

सफ़ेद पानी की समस्या leucorrhoea

इसके पत्तों का रस योनि के आस-पास लगाने से श्वेत प्रदर की समस्या दूर होती है।

मोच, चोट sprain, wound

इसके पत्तों की पुल्टिस बना कर लगायें।

माइग्रेन / आधासीसी migraine

सिर के जिस तरफ दर्द हो रहा हो, उसके दूसरे तरफ वाले नाक के छिद्र में इसके पत्तों / फूलों के रस की कुछ बूंदे टपकानी चाहिए।

सूजन swelling

अगस्त के पत्ते + धतूरे के पत्ते, बराबर मात्रा में पिस्स्कर सूजन वाली जगह पर बंधाना चाहिए।

माथे में कफ के कारण भारीपण, जुखाम-खांसी, नजला congestion

  • नाक में इसके पत्तों के रस की 2-4 बूंदे टपकाने से लाभ मिलता है। अथवा
  • इसकी जड़ के रस को 10-20 gram की मात्रा में शहद के साथ चाट कर दिन में 3-4 बार लें।

कब्ज़ constipation

  • पत्तों की सब्जी बना कर खाएं। अथवा
  • पत्तों का काढ़ा बनाकर पियें। करीब 20 ग्राम पत्ते लेकर डेढ़ गिलास पानी में उबालें। जब एक कप पानी बचे उसे छान लें और पियें।

बुद्धिवर्धक improving memory

बीजों के चूर्ण को दूध के साथ दिन में दो बार लें।

बुखार fever

पत्तों के रस 2-3 चम्मच की मात्रा में शहद मिलाकर सुबह-शाम सेवन करें।

औषधीय मात्रा Dosage of Agastya

  • छाल का काढ़ा: 25-100 ml तक लिया जा सकता है।
  • पत्तों का रस: 2-3 चम्मच, पत्तों का पेस्ट: 5-10 ग्राम और बीजों का चूर्ण 1-3gram तक लिया जाता है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  • यह पित्त को कम करता है।
  • यह वातवर्धक है इसलिए वात प्रवृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।

अकरकरा Pellitory Root – Akarkara Information, Benefits, Uses, Side-effects in Hindi

$
0
0

आकारकरभ, अकरकरा, करकरा आदि एनासाइक्लस पायरेथम के संस्कृत नाम हैं। इसका अरेबिक नाम आकिरकिर्हा, ऊदुलकई और फ़ारसी में तर्खून कोही है। इंग्लिश में इसे पाइरेथ्रम रूट, पेलेटरी रूट, स्पेनिश पेलिटरी Pellitory Root आदि नामों से जानते हैं।

एनासाइक्लस पायरेथम, जो की पूरी दुनिया में पेलिटरी रूट के नाम से मशहूर है अफ्रीका का पौधा है। इसका वर्णन आयुर्वेद के बहुत प्राचीन ग्रंधों में नहीं मिलता। किसी संहिता में इसके बारे में नहीं लिखा गया है। लेकिन बाद के ग्रंथों में, जो दवाएं यूनानी पद्यति से लिए गए उनमें अकरकरा का वर्णन मिलता है। अकरकरा नाम भी अरेबिक नाम आकिरकिर्हा से आया है। आकिरकिर्हा, अरबी के अकर (काटना) और तकरीह (जख्म डालना) से बना है। भारत में यह जड़ी -बूटी मुख्यतः अलजीरिया से आयात की जाती है।

akarkara medicinal uses
By JerryFriedman (Own work) [CC BY-SA 3.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0) or GFDL (http://www.gnu.org/copyleft/fdl.html)], via Wikimedia Commons
अकरकरा, जिसका बोटानिकल नाम एनासाइक्लस पायरेथम Anacyclus pyrethrum है, वह उत्तरी अफ्रीका, अलजीरिया और अरब में पायी जाने वाली वनस्पति है। भारत में उत्पन्न एक अन्य वनस्पति स्पाईलेंथस पेनीकुलेटा Spilanthes paniculata को देसी अकरकरा कहते है। ये दोनों ही वनस्पतियाँ बिलकुल भिन्न है पर दोनों को ही मुख और दन्त रोगों में प्रयोग किया जाता है। दवा की तरह दोनों, देशी और विदेशी अकरकरा प्रयोग किये जाते हैं लेकिन विदेशी अकरकरा अधिक वीर्यवान, उत्तम है तथा गुणों में देसी अकरकरा से श्रेष्ठ है। विदेशी अकरकरा महंगा मिलता है। देसी अकरकरा के पुष्प गोल छत्री के आकार के और पीले रंग के होते हैं।

दवा की तरह विदेशी अकरकरा की जड़ों का प्रयोग किया जाता है। यह जड़ें लम्बी और धुरी के आकार fusiform की होती हैं। इसके पुष्प सफ़ेद रंग की पंखुड़ियों वाले और बीच से पीले-हरे से होते हैं। देखने में यह डेज़ी फ्लावर जैसे होते हैं। इसके बीज सोआ जैसे होते हैं। असली अकरकरा की जड़ों में कीड़े लगने की संभावना बहुत रहती है। इसलिए भंडारण के समय इसे बिना नमी वाले और ठन्डे स्थान पर रखना चाहिए। इसे सीधे प्रकाश में नहीं रखना चाहिए।

अकरकरा एक औषधीय वनस्पति है। यह मुख्य रूप से मुख रोगों, दांत में दर्द, गले की दिक्कतों, मुंह के लकवे, मिर्गी, कमजोर नाड़ी, लार न बहने, पित्त की कमजोरी, कफ की अधिकता आदि में प्रयोग किया जाता है। आयुर्वेद में इसे पित्त वर्धक और कफ नाशक माना गया है। यूनानी में इसे तीसरे दर्जे का रुक्ष और गर्म माना गया है। अकरकरा की जड़ का मुख्य सक्रिय तत्व पेलिटोरिन है अथवा पारेथ्रिन है। यह अकरकरा को तीक्ष्ण और लार बहाने के गुण देता है। यह स्वाद व स्वभाव में कुछ-कुछ काली मिर्च के पिपरिन जैसा है।

यह काम शक्ति को बढ़ाने और वाजीकारक की तरह, आंतरिक और बाहरी, दोनों ही तरह से प्रयोग किया जाता है। बाहरी रूप से इसका लेप (तिला के रूप में) और आंतरिक रूप से इसे चूर्ण की तरह प्रयोग किया जाता है। इसका सेवन उत्तेजना लाता है और इन्द्रिय को अधिक खून की सप्लाई करता है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: एनासाइक्लस पायरेथम Anacyclus pyrethrum
  • कुल (Family): मुण्डी कुल
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: मुख्य रूप से जड़ें
  • पौधे का प्रकार: छोटा पौधा
  • वितरण: उत्तरी अफ्रीका के देशों में प्राकृतिक रूप से मिलता है। भारत में इसकी खेती हिमालय के कुछ हिस्सों में की जा रही है।
  • पर्यावास: यह अच्छी तरह से पानी निकल जाने वाली, उर्वरक युक्त, लोमी मिट्टी में अच्छे से पैदा होता है।

स्थानीय नाम / Synonyms

  • साइंटिफिक नाम : Anacyclus pyrethrum
  • संस्कृत : Akallaka, Akallaka, Akarakarabha
  • असामीज : Kulekhara
  • बंगाली : Akarakara
  • इंग्लिश : Pellitory, Pellitory of Spain, Pyrethre, Pyrethrum, Roman Pellitory, Spanish Camomile,
  • गुजराती : Akkalkaro, Akkalgaro
  • हिंदी : Akalkara
  • कन्नड़ : Akkallakara, Akallakara, Akalakarabha, Akkallaka Hommugulu
  • मलयालम : Akikaruka, Akravu
  • मराठी : Akkalakara, Akkalakada
  • उड़िया : Akarakara
  • पंजाबी : Akarakarabh, Akarakara
  • तमिल : Akkaraka, Akkarakaram
  • तेलुगु : Akkalakarra
  • उर्दू : Aqaraqarha
  • अरेबिक : Aaqarqarha, Aquarqarha, Audulqarha, Udalqarha
  • पर्शियन : Kakra, kalu, kalua, kazdam, akalawa, Beekhe Tarkhoon

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: Asteridae
  • आर्डर Order: Asterales
  • परिवार Family: Asteraceae
  • जीनस Genus: Anacyclus
  • प्रजाति Species: Anacyclus pyrethrum

आयुर्वेदिक गुण और कर्म

अकरकरा एक कटु रस औषधि है। कटु रस जीभ पर रखने से मन में घबराहट करता है, जीभ में चुभता है, जलन करते हुए आँख मुंह, नाक से स्राव कराता है। कटु रस तीखा होता है और इसमें गर्मी के गुण होते हैं। गर्म गुण के कारण यह शरीर में पित्त बढ़ाता है, कफ को पतला करता है। यह पाचन और अवशोषण को सही करता है। इसमें खून साफ़ करने और त्वचा रोगों में लाभ करने के भी गुण हैं। कटु रस गर्म, हल्का, पसीना लाना वाला, कमजोरी लाने वाला, और प्यास बढ़ाने वाला होता है। यह रस कफ रोगों में बहुत लाभप्रद होता है। गले के रोगों, शीतपित्त, अस्लक / आमविकार, शोथ रोग इसके सेवन से नष्ट होते हैं। यह क्लेद/सड़न, मेद, वसा, चर्बी, मल, मूत्र को सुखाता है। यह अतिसारनाशक है। इसका अधिकता में सेवन शुक्र और बल को क्षीण करता है, बेहोशी लाता है, सिराओं में सिकुडन करता है, कमर-पीठ में दर्द करता है। पित्त के असंतुलन होने पर कटु रस पदार्थों को सेवन नहीं करना चाहिए।

यह उष्ण स्वभाव की औषध है। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

  • रस (taste on tongue):कटु
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, तीक्ष्ण
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाक, द्रव्य आमतौर पर वातवर्धक, मल-मूत्र को बांधने वाले होते हैं। यह शरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।

कर्म:

  • वातशामक
  • कफनाशक
  • पौष्टिक
  • लारस्रावजनक
  • नाड़ीबल्य
  • कामोद्दीपक
  • वीर्यवर्धक

अकरकरा के लाभ Health Benefits of Akarkara

  1. यह मुख रोगों, हकलाना, तुतलाना, दांत-दर्द, लकवा, कफ आदि की अच्छी दवाई है।
  2. इसके सेवन से शरीर में पित्त की कमी के कारण होने वाले पाच, मन्दाग्नि में लाभ होता है।
  3. यदि शरीर में कफ अधिक बढ़ गया हो तो अकरकरा का सेवन कफ को सुखाता है और शरीर में गर्मी लाता है। यह सर्दी, खांसी, कफ आदि में लाभप्रद है।
  4. यह बुद्धिवर्धक है।
  5. यह नसों को ताकत देने वाली औषध है।
  6. इसका सेवन कामेच्छा को बढ़ाता है, नामर्दी दूर करता है, सेक्सुअल ऑर्गन को ताकत देता है और शीघ्रपतन को दूर करता है।

अकरकरा के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Akarkara – Anacyclus pyrethrum

अकरकरा में मूत्रल, वाजीकारक, बुद्धिवर्धक, कफनाशक, उत्तेजक और पित्तवर्धक गुण पाए जाते हैं। क्योंकि इसका सेवन शरीर में गर्मी लाता है इसलिए यह पाचन की कमजोरी और कफ की अधिकता में लाभप्रद है। अकरकरा का सेवन कफ को सुखाता है और शरीर में रूक्षता लाता है।

अकरकरा की जड़ को बहुत ही कम मात्रा में लेना चाहिए। अधिक मात्रा लाभ के स्थान पर हानि करती है। कतीरा, मुनक्का आदि को इसका दर्प नाशक माना गया है। बाह्य रूप से लगाने पर भी यह बुखार, इन्द्रिय की कमजोरी, लकवा आदि में अच्छे परिणाम देता है।

नामर्दी, शीघ्रपतन

अकरकरा की जड़ + अश्वगंधा + केवांच बराबर मात्रा में मिलाकर पीस लें। इस चूर्ण का सेवन दिन में दो बार आधा से लेकर एक टीस्पून तक सेवन करें।

यौन इन्द्रिय दुर्बलता

जड़ का रस अथवा तेल की यौन इन्द्रिय पर मालिश करके पान के पत्ते के साथ इन्द्रिय पर दो घंटा बाँधने से यौन इन्द्रिय मज़बूत और पुष्ट होती है।

पुरुषों में कामेच्छा को बढ़ाने के लिए

अकरकरा का सेवन शरीर में गर्मी और उत्तेजना लाता है।

अकरकरा चूर्ण + अश्वगंधा + सफ़ेद मुस्ली, बराबर मात्रा में मिलाकर पीस लें। इस चूर्ण का सेवन दिन में दो बार आधा से लेकर एक टीस्पून तक सेवन करें।

मिर्गी Epilepsy

  • अकरकरा की जड़ का चूर्ण आधा ग्राम को शहद के साथ लें। चूर्ण को नस्य के लिए भी प्रयोग किया जाता है। अथवा
  • सिरके में अकरकरा कप पीस कर शहद के साथ 5-10 ml की मात्रा में लें। अथवा
  • अकरकरा की जड़ का काढ़ा, ब्राह्मी के साथ मिलाकर लें।

अर्धांगवात Hemiplegia

अकरकरा की जड़ का चूर्ण + राई का चूर्ण को शहद में मिलाकर जीभ पर लगाते हैं।

स्नायु रोग, लकवा, पक्षाघात Muscle disease, paralysis

  • अकरकरा की जड़ का चूर्ण दो ग्राम + सोंठ एक ग्राम + मुलेठी दो ग्राम, को लेकर काढ़ा बनाकर, एक महीने तक पीने से आराम मिलता है। अथवा अकरकरा की जड़ का चूर्ण आधा ग्राम की मात्रा में शहद के साथ चाट कर लें।
  • अकरकरा की जड़ को महुए के तेल के साथ मिलाकर मालिश करें।

साईटिका

अकरकरा की जड़ का चूर्ण + अखरोट के तेल में मिलाकर मालिश करें।

दांत में दर्द

अकरकरा की जड़ को पीस कर प्रभावित दांत की जड़ के नीचे रखना चाहिए।

हकलाना, तुतलाना

अकरकरा की जड़ का चूर्ण एक रत्ती, काली मिर्च चूर्ण एक रत्ती को शहद एक चम्मच, में मिलाकर जीभ पर पांच मालिश करें। यह प्रयोग २-३ महीने तक करें। (1 Ratti=125mg)

आवाज़ मधुर करने के लिए

चौथाई से लेकर आधे ग्राम की मात्रामें अकरकरा की जड़ के चूर्ण की फंकी लें।

गले का बैठ जाना

  • अकरकरा की जड़ के टुकड़े को चूसना चाहिए। अथवा
  • इसकी जड़ के काढ़े से कुल्ले करने चाहिए।

हिचकी

अकरकरा की जड़ का चूर्ण + शहद लें।

अधिक लार के लिए

अकरकरा की जड़ चूसने से अधिक लार बनती है।

खांसी, कफ

जड़ का काढा बनाकर पीने से लाभ होता है।

गैस, अपच, मन्दाग्नि

अकरकरा की जड़ का चूर्ण 1 ग्राम + सोंठ एक ग्राम, को खाने से पाचन की कमजोरी दूर होती है।

सिर का दर्द

अकरकरा की जड़ कप पीस कर माथे पर लेप करने से सिर के दर्द में आराम होता है।

सिन्दूर का विष दूर करने के लिए

अकरकरा की जड़ को गिस कर पानी के साथ दिया जाता है।

बुद्धि को बढाने के लिए

अकरकरा की जड़ का चूर्ण + ब्राह्मी, बराबर मात्रा में पीस कर रख लें। इसे आधा टीस्पून की मात्रा में लें।

बुखार

जड़ को तेल में पका कर तेल को मालिश के लिए प्रयोग करते हैं।

अकरकरा की औषधीय मात्रा Dosage of Akarkara

अकरकरा को लेने की औषधीय मात्रा आधा से एक ग्राम है। काढ़ा बनाने के लिए करीब दो से तीन ग्राम जड़ का चूर्ण लेकर एक कप पानी में उबालें जब तक पानी चौथाई न रह जाए।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. कुछ लोगों में पौधे को छूने के बाद डेर्मेटाइटिस हो सकता है।
  2. इसे बहुत अधिक मात्रा (एक – दो ग्राम से ज्यादा) में और बहुत लम्बे समय (एक – दो महिना से ज्यादा) तक प्रयोग न करें।
  3. अधिक मात्रा में इसका सेवन आतों को नुकसान पहुंचता है जिससे आँतों से खून निकल सकता है, टिटनेस-तरह की ऐंठन होती है और बेहोशी भी हो सकती है।
  4. अधिकता में किये गए सेवन से खूनी दस्त हो सकती है।
  5. यह फेफड़ों के लिए अहितकर माना गया है।
  6. यह पित्त को बढ़ाता है। इसलिए पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
  7. जिन्हें पेट में सूजन हो gastritis, वे इसका सेवन न करें।
  8. शरीर में यदि पहले से पित्त बढ़ा है, रक्त बहने का विकार है bleeding disorder, हाथ-पैर में जलन है, अल्सर है, छाले हैं तो भी इसका सेवन न करें।
  9. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।
  10. अकरकरा के साइड-इफेक्ट्स को दूर करने के लिए गोंद कतीरा, गोंद बबूल, मुनक्का अथवा मुलेठी का प्रयोग करना चाहिए।

ऊँटकटारा Brahmadandi – Oont Katara (Echinops echinatus)

$
0
0

एकिनोप्स एकिनाटस को संस्कृत में कटालु, उताति, ब्रम्हडंडी, हिंदी में ऊँटकटारा, मराठी में उटकटारी, काँटेचुम्बक, बंगला में छागसहाड़ी, वामनहांडी, और अंग्रेजी में ग्लोब-थीस्ल, कैमल्स थीस्ल कहते हैं। यह एक औषधीय वनस्पति है जो की रेतीले प्रदेशों, बंजर खेतों मैदानों में पायी जाती है।

यह सूरजमुखी कुल का, सीधे तने वाला, काँटों से भरा हुआ, १-२ फुट की ऊँचाई वाला पौधा है। इसकी पत्तियां सत्यानाशी के पौधे जैसे ही फैली हुए और कांटेदार होती हैं। यह बहुशाखीय है ऊँटकटारा के ढोढे होते हैं जिनपर कांटे होते हैं। इस पर नीले-बैंगनी रंग के छोटे-छोटे फूल गुच्छों में आते हैं। इसकी मूसला जड़ भूमि में बहुत अन्दर तक धंसी रहती हैं।

Oont Katara
By Yercaud-elango (Own work) [CC BY-SA 4.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0)], via Wikimedia Commons
आयुर्वेद में ऊँटकटारा को बल देने वाले, मधुमेह नाशक, वीर्य स्तंभक, पुष्टिकारक, दर्द-निवारक, प्रमेहनाशक माना गया है। इसे कामशक्तिवर्धक औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: एकिनोप्स एकिनाटस Echinops echinatus
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पत्ते, जड़, छाल, फल
  • पौधे का प्रकार: झाड़ी
  • वितरण: मध्य भारत, मारवाड़, दक्षिणी प्रान्त
  • पर्यावास: यह उष्ण प्रदेशों की वनस्पति है।

ऊँटकटारा के स्थानीय नाम / Synonyms

  • संस्कृत: Kantalu, Kantaphala, Utati, Utkantaka, Karabhadana, Sringalshunkashana
  • हिंदी: Untakatara, Uthkanta, Utakatira
  • अंग्रेजी: Indian globe thistle, Camel’s thistle
  • गुजराती: Utkanto, Utkato, Shuliyo
  • कन्नड़: Brahmadande
  • तेलुगु: Brahmadandi
  • अन्य: Oont kantalo, Modokanto, Oontkantalo, Oont-Kanti, Utkali

ऊँटकटारा का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: एस्टीरिडेएइ Asteridae
  • आर्डर Order: ऐस्टेरेल्स Asteridae
  • परिवार Family: Asteraceae – Aster family
  • जीनस Genus: एकिनोप्स Echinops
  • प्रजाति Species: एकिनोप्स एकिनाटस Echinops echinatus

ऊँटकटारा के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

ऊँटकटारा स्वाद में कटु,तिक्त, गुण में रूखा करने वाला है। स्वभाव से यह गर्म है और कटु विपाक है।

यह तासीर में गर्म है। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

  • रस (taste on tongue): कटु, तिक्त
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाक, शरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।

ऊँटकटारा का प्रयोग निम्न रोगों में लाभदायक है

  • मूत्रकृच्छ (dysuria)
  • मधुमेह (diabetes)
  • तृष्णा (thirst)
  • हृद्रोग (cardiac diseases)
  • अश्मरी (urolithiasis)
  • ज्वर (fever)

ऊँटकटारा के गुण

  1. यह अग्निवर्धक है और पाचन को बढ़ाता है।
  2. यह ज्वर को नष्ट करने वाली औषध है।
  3. यह उत्तेजक और भूख बढ़ाने वाला है।
  4. यह कामोद्दीपक, पौष्टिक और बल्य है।
  5. यह मूत्रवर्धक और स्नायु को बल देता है।

ऊँटकटारा के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Echinops echinatus in Hindi

ऊँटकटारा में कई अल्कालॉयड, ट्राईटरपेन, फ्लावोनोइड, Alkaloids, triterpene, flavonoids, स्टेरॉयड, लिपिड पाए जाते है। इसमें मूत्रल, टॉनिक और कामोद्दीपक गुण है। इसे पशुओं के रोगों में भी प्रयोग किया जाता है।

तपेदिक Tuberculosis

Echinops echinatus बीज + Antidesma acidum जड़ + Solanum surattense जड़, का काढ़ा बनाकर शहद के साथ दिन में दो बार, आधे महीने तक दिया जाता है।

प्रमेह

  • ऊँटकटारा की छाल का चूर्ण शहद / मिश्री के साथ देते हैं। अथवा
  • ऊँटकटारा की जड़ की छाल तीन ग्राम + गोखरू तीन ग्राम + मिश्री छः ग्राम, के बारीक़ चूर्ण को मिलाकर दिन में दो बार, सुबह-शाम दूध के साथ लेना चाहिए।

अधिक पसीना आना

ऊँटकटारा की जड़ों का चूर्ण दिन में एक से लेकर तीन बार तक दिया जाता है।

पाचन की कमजोरी

ऊँटकटारा की जड़ की छाल + छुहारे की गुठली का चूर्ण, तीन ग्राम की मात्रा में लेते हैं।

खांसी

ऊँटकटारा की जड़ की छाल को पान में रखकर खाते हैं।

मूत्रकृच्छ

तालमखाना + ऊँटकटारा की जड़ की छाल की फंकी लेते हैं।

कफ, अपच, वीर्य की कमजोरी

पौधे को पानी में भिगा कर infusion of plants सेवन किया जाता है।

स्त्रियों में बाँझपन

पत्ते और पुष्पक्रम का अर्क infusion of leaves and inflorescence, सात दिनों तक सुबह,सात दिनों तक देने से गर्भ ठहरने के आसार बढ़ते हैं।

कामशक्ति बढ़ाने के लिये, सेक्सुल पॉवर बढ़ाना

  • ऊँटकटारा की जड़ की छाल 12 ग्राम, को कुचल कर पोटली में बाँध देते हैं। फिर इसे आधा लीटर गाय के दूध + एक लीटर पानी में उबालते हैं। जब केवल दूध बचे तो दूध पी लें।
  • जड़ की छाल का पेस्ट इन्द्रिय पर सेक्स से एक घंटा पहले लगाते हैं।

राउंड वर्म, पेट के कीड़े

पत्तों का रस, शहद के साथ देते हैं।

गर्भाशय की सूजन

पत्तों की चटनी को ऊँटनी के दूध में पकाकर, कपड़े में लगाकर पेडू पर बांधते हैं।

प्रसव कराने के लिए

ऊँटकटारा की जड़ों से बना काढ़ा जल्दी और आसान प्रसव के लिए नाभि के आस-पास लगाया जाता है।

बुखार

रूट पेस्ट को शरीर पर लगाते हैं।

चमड़ी के रोग, जोड़ों का दर्द, रूमेटिक सूजन, खुजली, एक्जिमा

पत्तों का अथवा जड़ का पेस्ट लगाते हैं।

सांप-बिच्छू के काटने पर

जड़ को पानी में पीसकर प्रभावित जगह पर लगाते हैं।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह पित्त को बढ़ाता है। इसलिए पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
  2. अधिक मात्रा में सेवन पेट में जलन, एसिडिटी, आदि समस्या कर सकता है।
  3. जिन्हें पेट में सूजन हो gastritis, वे इसका सेवन न करें।
  4. शरीर में यदि पहले से पित्त बढ़ा है, रक्त बहने का विकार है bleeding disorder, हाथ-पैर में जलन है, अल्सर है, छाले हैं तो भी इसका सेवन न करें।
  5. गर्भावस्था में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह एबॉर्शन करता है। बहुत कष्टकारी और लम्बे प्रसव के लिए ही इसका प्रयोग करते हैं और वह भी बहुत सावधानी से।

सूरजमुखी Sunflower Helianthus annuus in Hindi

$
0
0

सूरजमुखी को हिंदी में हुरहुल, संस्कृत में सूर्यमुखी, सूर्य्यवितं, सुवन्चला तथा अंग्रेजी में सनफ्लावर कहते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम हेलिएन्थस एनस Helianthus annuus है और यह कंपोजिटी परिवार का पौधा है।

सूरजमुखी का पौधा अपने बड़े पीले पुष्पों के लिए उद्यानों में लगाया जाता है। इसकी बड़े पैमाने पर खेती इसके बीजों के लिए की जाती है। बीजों का सेवन स्नैक्स की तरह किया जाता है लेकिन इन्हें मुख्य रूप से तेल निकालने के लिए ही प्रयोग करते है। सूरजमुखी का तेल भोजन बनाने में कुकिंग आयल की तरह और सौंदर्य तेल, साबुन आदि में भी किया जाता है। सूरजमुखी का तेल हल्का होता है और इसमें लिनोलेइक एसिड, ओलिक एसिड, और पामिटिक एसिड पाए जाते हैं। इसमें उच्च मात्रा में विटामिन E, A और D भी होते हैं। यह खून में कोलेस्ट्रोल को बढ़ने से रोकता है।

sunflower medicinal uses

सूरजमुखी एक औषधीय वनस्पति भी है। इसके पत्ते, बीज, पुष्प सभी का औषधीय प्रयोग किया जाता है। यह स्वभाव से उष्ण और स्वाद में चरपरा माना गया है। यह ज्वरनाशक, कृमिनाशक, कफ विकार, चमड़ी के रोगों, पथरी, पेशाब के रोगों, कब्ज़, आदि में लाभप्रद है। इसके बीज पौष्टिक होते हैं और शरीर को ताकत देते है। बीजों में लोहा, कैल्शियम, पोटैशियम, फॉस्फोरस और जिंक पाया जाता है। इनको स्नैक की तरह खाया जाता है। वज़न कम करने के लिए बीजों को डाइट में शामिल किया जाता है क्योंकि यह फाइबर और प्रोटीन युक्त है तथा शरीर में आवश्यक पोषक पदार्थों की कमी नहीं होने देते। बीजों से जो तेल निकालता है उसे भी दवाई की तरह प्रयोग किया जाता है। पुष्प और कलियों में जिंक, विटामिन E, बीटाकैरोटीन, बी विटामिन (B1, B2, B3, B6),मैगनिशियम, मैंगनीज और क्रोमियम पाया जाता है।

सूरजमुखी को आंतरिक प्रयोगों के साथ-साथ बाह्य रूप से लगाया जाता है।

सामान्य जानकारी

सूरजमुखी का पौधा मध्य – दक्षिणी अमेरिका का मूल निवासी है। पेरू में इसकी खेती करीब ३००० हज़ार साल पहले सेकी जाती रही है। प्राचीन पेरू में इसे सूर्य का प्रतीक माना गया। इसे मेरीगोल्ड ऑफ़ पेरू भी कहा जाता है।

सूरजमुखी एक वार्षिक पौधा है तथा इसकी उंचाई एक से तीन मीटर हो सकती है। इनका तना सीधा होता है। पत्ते खुरदरे और रोयेंदार होते हैं। भारत में सूरजमुखी की बुवाई फरवरी के दूसरे सप्ताह में की जाती है। इसकी खेती के लिए अच्छी तरह की निकासी वाली और उर्वरक भूमि चाहिए। खेती के समय प्रत्येक हेक्टेयर में 80kg नाइट्रोजन, 60kg फोस्फोरस और 40kg पोटाश डाला जाता है। इसे बढ़ने के लिए पूरे दिन धूप की ज़रूरत है। बीजों की बुवाई के बीस-पच्चीस दिन बाद पहली सिंचाई की जाती है। बाद में फूल और बीज होते समय प्रयाप्त मात्रा में सिंचाई ज़रूरी है।

भारत में महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक सूरजमुखी की खेती की जाती है।

  • वानस्पतिक नाम: हेलिएन्थस एनस
  • कुल (Family): कम्पोजिटी
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पत्ते, बीज, तेल
  • पौधे का प्रकार: झाड़ी
  • वितरण: पूरे भारत में इसे उगाया जाता है।
  • पर्यावास: गर्म प्रदेश
  • सूरजमुखी के स्थानीय नाम / Synonyms
  • वैज्ञानिक : Helianthus annuus
  • संस्कृत : Adityabhakta, Suryamukhi, Suvarchala
  • इंग्लिश : Sunflower, Common sunflower, Annual sunflower, wild sunflower
  • कन्नड़ : Sooryamukhi, Sooryakanthi
  • मलयालम : Sooryakanthi
  • तमिल : Suryakanti

वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: एस्टीरिडेएइ Asteridae
  • आर्डर Order: ऐस्टेरेल्स Asterales
  • परिवार Family: ऐस्टेरेसिएई Asteraceae ⁄ Compositae – Aster family
  • जीनस Genus: हेलिएन्थस Helianthus
  • प्रजाति Species: हेलिएन्थस एनस Helianthus annuus

सूरजमुखी के बीज के लाभ Benefits and Nutrition of Sunflower Seeds

सूरज मुखी के बीजों में बीस से तीस प्रतिशत प्रोटीन और करीब चालीस प्रतिशत फैट होता है। इसमें लोहा, बी विटामिन, ऐ विटामिन, कैल्शियम, कॉपर और फॉस्फोरस भी पाए जाते हैं। सूरजमुखी के बीजों के सेवन से शरीर में ताकत आती है और इम्युनिटी बढ़ती है। बीजों का सेवन अनीमिया को दूर करता है और शरीर के लिए ज़रूरी फैटी एसिड्स देता है।

सूरजमुखी के बीज की मज्जा, पोषण प्रति 100 ग्राम

ऊर्जा 2385 किलो जूल (570 किलो कैलोरी)

कार्बोहाइड्रेट 18.76 ग्राम

– शुगर्स 2.62 ग्राम

– आहार फाइबर 10.5 ग्राम

फैट 49.57 ग्राम

– संतृप्त 5.20 ग्राम

– मोनोअनसैचुरेटेड 9.46 ग्राम

– पॉलीअनसेचुरेटेड 32.74 ग्राम

  1. प्रोटीन 22.78 ग्राम
  2. थाईमिन (विटामिन बी 1) 2.29 मिलीग्राम (199%)
  3. राइबोफ्लेविन (विटामिन बी 2) 0.25 मिलीग्राम (21%)
  4. नियासिन (विटामिन बी 3) 4.5 मिलीग्राम (30%)
  5. पैंटोथिनिक एसिड (बी 5) 6.75 मिलीग्राम (135%)
  6. विटामिन बी 6 0.77 मिलीग्राम (59%)
  7. फोलेट (विटामिन B9) 227 माइक्रोग्राम (57%)
  8. विटामिन सी 1.4 मिलीग्राम (2%)
  9. विटामिन ई 34.50 मिलीग्राम (230%)
  10. कैल्शियम 116 मिलीग्राम (12%)
  11. आयरन 6.77 मिलीग्राम (52%)
  12. मैग्नीशियम 354 मिलीग्राम (100%)
  13. मैंगनीज 2.02 मिलीग्राम (96%)
  14. फास्फोरस 705 मिलीग्राम (101%)
  15. पोटेशियम 689 मिलीग्राम (15%)
  16. सोडियम 3 मिलीग्राम (0%)
  17. जिंक 5.06 मिलीग्राम (53%)

सूरजमुखी के तेल के लाभ Benefits of Sunflower Oil

  1. यह खाद्य तेल उच्च तापमान पर भी खराब नहीं होता।
  2. इसे सलाद पर भी डाला जा सकता है।
  3. सूरजमुखी खाद्य तेल में विटामिन ई की अच्छी मात्रा है।
  4. इसमें लेसिथिन, टोकोफेरोल, कैरोटेनोइड और वैक्स होता है।
  5. इसमें असंतृप्त वसा होती है। इस तेल का सेवन कोरोनरी धमनी रोग के खतरे को कम करता है।
  6. यह सीरम और यकृत कोलेस्ट्रॉल को कम करती है।
  7. इसके सेवन से आंतरिक रूक्षता नष्ट होती है और कब्ज़ दूर होती है।
  8. इसको मालिश के लिए इस्तेमाल किया जाने पर यह त्वचा के छिद्रों को बंद नहीं करता।
  9. त्वचा पर बाहरी रूप से लगाने पर यह त्वचा को पोषण देता है, नमी को खोने से रोकता है और इन्फेक्शन से बचाता है।
  10. यह तिल के तेल की अपेक्षा कम गर्म होता है और गर्मी में भी प्रयोग किया जा सकता है।

सूरजमुखी के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Sunflower in Hindi

सूरजमुखी के बहुत से औषधीय प्रयोग हैं। इसके बीजों में मूत्रल और कफ को नष्ट करने के गुण हैं। बीजों को दस ग्राम की मात्रा तक खाने से विष उतर जाता है। पुष्प कामोद्दीपक, पौष्टिक और सूजन को दूर करने के प्रयोग में लाये जाते हैं। पत्तों का लेप लीवर और फेफड़ों की सूजन में किया जाता है। गलगंड में इसके पत्ते और लहसुन को पीस कर बाह्य रूप से लगाते हैं। बवासीर में बीजों के चूर्ण को तीन से छः ग्राम की मात्रा में शक्कर मिलाकर लिया जाता है। पत्तों के रस और बीजों का लेप माथे पर माइग्रेन को दूर करने के लिए किया जाता है।

कान में कीड़ा

कान में यदि कोई कीड़ा घुस जाए, तो सूरज मुखी के तेल में लहसुन की कुछ कलियाँ डाल कर गर्म करें। जब यह तेल ठंडा हो जाए तो कान में इसकी कुछ बूँदें डालें।

कांच निकलने पर

तीन दिनों तक फूलों का रस गुदाद्वार पर लगाया जाता है।

कमज़ोरी

पत्तियों का काढ़ा बनाकर पीने से कमजोरी दूर होती है। सूरजमुखी की पांच पत्तियां लेकर करब एक कप पानी में उबालें। जब आधा कप पानी बचे इसे छान लें और सेवन करें।

पाइल्स में बाहरी उपयोग

सूरजमुखी की पत्तियों का पेस्ट + सूरजमुखी का तेल, मिलाकर बाह्य रूप से लगाया जाता है।

पेट की गड़बड़ी, कब्ज़, अपच

दूध में सूरजमुखी की कुछ बूँदें डाल का सेवन करें।

दस्त लाने के लिए

तेल की कुछ बूँदें नाभि पर लागाई जाती हैं।

चमड़ी की देखभाल, दाग-धब्बे, एक्जिमा, सोराइसिस, मालिश

सूरजमुखी का तेल लेकर रोज हल्की मालिश करें।

उच्च रक्तचाप

सूरजमुखी का तेल हल्का होता है। यह बुरे कोलेस्ट्रोल को कम करता है। इसका सेवन उच्च रक्तचाप को कम करता है। इसलिए सूरजमुखी के तेल को खाना बनाने के लिए प्रयोग करें।

मलेरिया का बुखार

आधा कप पत्तों को दो कप पानी में उबालें। इसे छान कर दिन में कई बार पियें।

पत्तों का रस शरीर पर बाह्य रूप से लगाया जाता है।

उलटी, जी मिचलाना

सूरजमुखी के तेल की दो बूँदें नाक में डालें।

बिच्छू के काटने पर

पत्तों को पीस कर प्रभावित स्थान पर लगाना चाहिए और पत्तों की कुछ बूँदें नाक में टपकानी चाहिए।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. बाज़ार में मिलने वाले रोस्टेड नमकीन सनफ्लावर सीड्स खाने से शरीर में ज़रूरत से ज्यादा नमक का सेवन हो सकता है।
  2. कुछ लोगों को सूरजमुखी परिवार Asteraceae ⁄ Compositae के पौधों से एलर्जी होती है, वे इसका प्रयोग सावधानी से करें।
  3. पुराने बीजों का सेवन पेट में जलन, गैस, लूज़ मोशन कर सकता है।
  4. बहुत अधिक मात्रा में सेवन हानिप्रद है। यह वज़न और बुरे कोलेस्ट्रोल LDL cholestrol को बढ़ा सकता है।
  5. अगर आप बहुत अधिक मात्रा में इन्हें खाते हैं, तो शरीर में आवश्यकता से अधिक सेलेनियम, फॉस्फोरस, आदि मिलते हैं जो लाभ की अपेक्षा नुकसान अधिक करता है।
  6. बीजों में फाइबर होता है, इसलिए अधिक मात्रा में सेवन गैस, पेट में दर्द कर सकता है।
  7. इसमें कुछ मात्रा में ऑक्सालेट भी पाये जाते हैं।

पुनर्नवा गदहपूरना Punarnava in Hindi

$
0
0

पुनर्नवा आयुर्वेद में प्रयोग की जाने वाली बहुत ही महत्वपूर्ण औषधि है। इसे बहुत ही प्राचीन समय से शरीर में सूजन, मूत्र रोगों और पथरी में प्रयोग किया जाता रहा है। इसके प्रयोग का वर्णन चरक और शुश्रुत संहिता में भी मिलता है। आयुर्वेद में मुख्य रूप से दो तरह के पुनर्नवा, रक्त पुनर्नवा और श्वेत पुनर्नवा का वर्णन है। लेकिन कुछ निघंटु इसके तीन प्रकार (लाल, सफ़ेद और नीला) भी बताते है। Read in English Medicinal Uses Of Punarnava Herb

रक्त पुनर्नवा का पौधा कुछ लाल – गुलाबी रंग लिए हुए होता है। इसके पत्ते, डंठल, व पुष्प कुछ लाल-गुलाबी रंग के दिखते है। लेकिन श्वेत पुनर्नवा के पुष्प सफ़ेद होते है।

Punarnava ke upyog
By Dinesh Valke from Thane, India (Boerhavia diffusa) [CC BY-SA 2.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/2.0)], via Wikimedia Commons
रक्त पुनर्नवा की पहचान के बारे में किसी प्रकार का संदेह नहीं है। लेकिन श्वेत पुनर्नवा के नाम से दो पौधे, Trianthema portulacastrum तथा Boerhavia verticillata जाने जाते है। सफ़ेद पुनर्नवा को संस्कृत में श्वेतमूल, शोथघ्नी, दीर्घपत्रिका, और वर्षाभू (Trianthema portulacastrum), के नाम से जानते है। यह वर्षा में उत्पन्न होता है और उसके उपरान्त दुर्लभ हो जाता है। वर्षा में ही इसमें पुष्प आते हैं। इसी कारण से इसे वर्षाभू भी कहते हैं। यह मुख्य रूप से ऊँची घास में और सरस भूमि में पाया जाता है। इसके पत्ते गोल, कोमल और मांसल होते हैं। शाखाएं छोटे रोयें युक्त होती हैं। बीज कुछ तिकोने होते हैं।

रक्त पुनर्नवा श्वेत पुनर्नवा से भिन्न है। इसका लैटिन नाम, बोएराविया डिफ्यूजा Boerhavia diffusa है। इसे संस्कृत में रक्तपुष्पा, शिलाटिका, शोथघ्नी क्षुद्रवर्षाभू, वृषकेतु, काठील्ल्क, लाल पुनर्नवा, हिंदी में लाल पुनर्नवा, लाल विषखपरा, लाल गदपुरना, लाल सांठ, साटी, और अंग्रेजी में स्प्रेडिंग हॉगवीड कहते हैं। लाल पुनर्नवा की जड़ से में वर्षा में नए शाख निकलते हैं। भूमि में इसकी जड़ें सुरक्षित होती है जो हर वर्ष बारिश आने पर फिर से नयी हो जाती है। इस कारण यह पुनर्नवा है। यह अपने आप को फिर से नया/नवीन कर लेता है। पुनर्नवा की जड़ें वर्षा के मौसम के बाद भी शुष्क नहीं होती और जीवित रहती हैं। इसके पत्ते और शाखाएं बारिश के दिनों में अधिक देखे जाते है। इसके पत्ते पतले होते हैं और थोड़े लम्बे होते हैं। यह स्वाद में सफ़ेद पुनर्नवा से कम कसैले होते हैं।

पुनर्नवा बहुत ही महत्वपूर्ण औषधि है। यह बढे हुए पित्त और कफ को संतुलित करता है तथा हृदय, यकृत, वृक्क, फेफड़ों और नेत्रों के लिए टॉनिक है। यह वृक्क और मूत्र मार्ग को साफ़ करता है। यकृत से भी यह विषैले पदार्थों को दूर करता है। अपने पसीना लाने, मूत्र बढ़ाने और विरेचक गुण के कारण यह शरीर की गंदगी को दूर कर रोगों को जड़ से दूर करने का काम करता है।

यह मुख्य रूप से शरीर की सूजन को दूर करने, यकृत और वृक्क के रोगों में प्रयोग की जाने वाली प्रमुख वनस्पति है। इसमें लीवर की रक्षा करने के गुण हैं। डेंगू के बुखार में गिलोय के साथ पुनर्नवा का काढ़ा बनाकर पिलाने से न केवल लीवर का बचाव होता है, इससे टोक्सिन दूर होते हैं अपितु नए रक्त का निर्माण होता है और शरीर में लीवर के सही काम न करने के कारण हो जाने वाले सर्वांग शोथ में लाभ होता है।

पुनर्नवा अपने मूत्रल गुणों के कारण शरीर में पानी के भर जाने, जलोदर, किडनी – ब्लैडर के स्टोंस आदि सभी में लाभ करता है। पुनर्नवा की सब्जी का प्रयोग करने से शोथ दूर होता है, रक्त का निर्माण होता है और स्वास्थ्य बेहतर होता है। इसका सेवन हृदय, यकृत और वृक्क को ताकत देता है और उनके रोगों को दूर करता है।

पुनर्नवा में पोटैशियम नाइट्रेट होता है जो इसे मूत्रल गुण देता है। अधिक मूत्र जाने के बाद भी शरीर में इसके सेवन से पोटैशियम साल्ट की कमी नहीं होती।

पुनर्नवा पांडुरोग, हिपेटाईटिस, यकृत की खराबी, विषदोष,शूल, शोथ, पथरी, जलोदर, मूत्र अवरोध, मूत्रकृच्छ, हृदय रोग, सूजन, हाथ-पैर में पानी इकठ्ठा हो जाना, अनिद्रा, आदि में अत्यंत प्रभावशाली है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: बोएराविया डिफ्यूजा Boerhavia diffusa
  • कुल (Family): पुनर्नवा कुल
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पूरा पौधा, पंचाग (फूल, पत्ते, जड़ पुष्प, तना) मुख्य रूप से जड़ें
  • पौधे का प्रकार: छोटा पौधा
  • वितरण: पूरे भारत में
  • पर्यावास: छोटे-छोटे फैले हुए पौधे खाली जमीन, सड़क किनारे आदि वर्षा में दिखते हैं।

पुनर्नवा के स्थानीय नाम / Synonyms

  • संस्कृत: भौम, कठिल्लक , कृष्णख्या , क्रूर , लोहित , मंडलपत्रिका , नवा , नव्या , नीला , नीलपुनर्नवा , नीलवर्षाभू , नीलिनी , प्रावृषेण्य , पुनर्भव , पुनर्नवा , रक्तकांदा , रक्तपत्रिका , रक्तपुनर्नवा , रक्तपुष्प , रक्तपुष्पिका रक्तवर्षभू, शिलाटिक , शोणपत्र , शोफ्गनी , शोथाग्नि , श्याम, स्वतपुनार्नावा , वैशाखी , वर्षाभाव , वर्षाभू , वर्षाकेतु , विकासवार , विषघ्नी , विषखर्पर
  • असमिया: : Ranga Punarnabha
  • बंगाली: रक्त पुनर्नवा
  • अंग्रेज़ी: Hog weed, Pig weed, Spreading Hog weed
  • गुजराती: Dholisaturdi, Motosatodo
  • हिन्दी: Gadhapurana, Gadapurna, Lalpunarnava, Sant, Thikri, Beshakapore, Lal Punarnava
  • कन्नड़: Komme Gida, Sanadika, Kommeberu, Komma, Teglame, Ganajali
  • कश्मीरी: Vanjula Punarnava
  • मलयालम: Thazhuthama, Thavizhama, Chuvanna Tazhutawa
  • मराठी: Ghetuli, Vasuchimuli, Satodimula, Punarnava, Khaparkhuti
  • उड़िया: Lalapuiruni, Nalipuruni
  • पंजाबी: ltcit, Khattan
  • तमिल: Karichcharanai, Mukaratte, Mukurattai, Mukkaraichchi
  • तेलुगु: Atika mamidi, Atikamamidi, Erra galijeru
  • सिंहली: Pitasudupala, Pitasudu-Sarana

पुनर्नवा का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: कैरयोफियलेडीए Caryophyllidae
  • आर्डर Order: कैरयोफिलेल्स Caryophyllales
  • परिवार Family: नैकटागिनेसिऐइ Nyctaginaceae
  • जीनस Genus: बोरहाविया Boerhavia
  • प्रजाति Species: बोरहाविया डिफ्यूजा Boerhavia diffusa

पुनर्नवा के संघटक Phytochemicals

  • रक्त पुनर्नवा और श्वेत पुनर्नवा दोनों में ही पुनर्नवीन अल्कालॉयड पाया जाता है।
  • पुनर्नवा में पोटैशियम नाइट्रेट, सल्फेट, क्लोराइड तथा तेल भी पाया जाता है।

पुनर्नवा के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

पुनर्नवा त्रिदोषहर, लेखन, शोथहर, दीपन, अनुलोमन, रेचक, हृदय, रक्तवर्धक, कासहर, मूत्रजनन स्वेदजनन, ज्वरघ्न, कुष्ठाघ्न, रसायन, और विषघ्न है। यह मूत्रल होने से शोथहर है। स्वाद में यह कड़वा कसैला, मधुर है। यह गुण में रूक्ष है और मधुर विपाक है। विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। मधुर विपाक के सेवन से शरीर में निर्माण होते हैं।

  • रस (taste on tongue): मधुर, तिक्त, कषाय
  • गुण (Pharmacological Action): रुक्ष
  • वीर्य (Potency):शीत (परन्तु कुछ जगहों पर इसे उष्ण वीर्य माना गया है)
  • विपाक (transformed state after digestion): मधुर

कर्म:

  • अनुलोमन: द्रव्य जो मल व् दोषों को पाक करके, मल के बंधाव को ढीला कर दोष मल बाहर निकाल दे।
  • कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे। anti- phlegmatic
  • कफनिःसारक / छेदन: द्रव्य जो श्वासनलिका, फेफड़ों, गले से लगे कफ को बलपूर्वक बाहर निकाल दे। expectorant
  • मूत्रल : द्रव्य जो मूत्र ज्यादा लाये। diuretics
  • मूत्रकृच्छघ्ना: द्रव्य जो मूत्रकृच्छ stranguryको दूर करे।
  • पित्तहर: द्रव्य जो पित्तदोष पित्तदोषनिवारक हो। antibilious
  • शोथहर: द्रव्य जो शोथ / शरीर में सूजन, को दूर करे। antihydropic
  • श्लेष्महर: द्रव्य जो चिप्चे पदार्थ, कफ को दूर करे।
  • रसायन: द्रव्य जो शरीर की बीमारियों से रक्षा करे और वृद्धवस्था को दूर रखे। toxin
  • विषहर : द्रव्य जोविष के प्रभाव को दूर करे। antidote

आयुर्वेदिक दवाएं जिनमें पुनर्नवा मुख्य घटक है:

  1. पुनर्नवा चूर्ण Punarnava Churna
  2. पुनर्नवादि गुग्गुलु Punarnavadi Guggulu
  3. पुनर्नवारिष्ट , पुनर्नवासव Punarnavarishta, Punarnavasava
  4. पुनर्नवादि तैल Punarnavaadi Taila
  5. पुनर्नवादि मंडूर Punarnava Mandoor / Punarnavadi Mandura
  6. पुनर्नवाष्टक क्वाथ चूर्ण Punarnavashtaka Kvatha Churna
  7. सुकुमार घृत Sukumara Ghrita

पुनर्नवा के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Punarnava in Hindi

पुनर्नवा कड़वा, पाक में चरपरा, रूक्ष, हल्का, ग्राही, कफविकार, पित्त विकार और रुधिर विकार को दूर करने वाला है। यह वीर्य में कहीं तो उष्ण और और कहीं पर शीत माना गया है। ऐसा शायद पुनर्नवा के रूप से प्रयोग किये गये पौधे के भेद से है। रक्त पुनर्नवा को जहाँ शीतल माना जाता है वहीँ सफ़ेद पुनर्नवा उष्ण वीर्य है।

पुनर्नवा एक मृदु विरेचक है जो की शरीर से मल को दूर करने में सहायक है। यह पाचक, मूत्रल, काफनिःसारक, वामक है। इसका सेवन श्वास, सूजाक, शोथ, पीलिया, हेपेटाईटिस, कामला, मूत्रकृच्छ, मूत्रघात, प्लीहा-यकृत वृद्धि समेत बहुत से रोगों में लाभप्रद है। नेत्र रोगों में भी पुनर्नवा का प्रयोग अच्छे परिणाम देता है। बाह्य रूप से पुनर्नवा का लेप विष वाले कीटों के दंश का महाऔषध माना गया है। बिच्छू के काटे पर इसको लगाने से लाभ होता है।

1- शोफ Edema, पूरे शरीर में सूजन

  • पुनर्नवा के पत्तों का शाक बना, सेंधा नमक मिला कर रोटी के साथ सेवन करना चाहिए।
  • पुनर्नवा के काढ़े के साथ गुग्गुल का सेवन करें। अथवा
  • पुनर्नवा के काढ़े / जड़ के पेस्ट को सोंठ के साथ मिला कर दूध के साथ एक मास तक लें। अथवा
  • पुनर्नवा को दूध में उबाल कर लें।

2- शोथ, पेट के रोग, प्लीहा वृद्धि, यकृत वृद्धि, एसिडिटी, बुखार

पुनर्नवासव का सेवन करें।

3- किडनी स्टोंस / गुर्दे की पथरी

  • पुनर्नवा की जड़ का काढ़ा बनाकर एक माह तक पियें। अथवा
  • पुनर्नवा की जड़ का चूर्ण + संगेयहूद भस्म 250 mg + शहद, मिलाकर दिन में दो बार, सुबह-शाम सेवन करें। अथवा
  • पुनर्नवा को दूध में उबालकर दिन में दो बार सुबह और शाम पियें।

4- पीलिया

पुनर्नवा के पंचाग / रस / जड़ का काढ़ा/ जड़ के चूर्ण का सेवन करें।

5- जलोदर ascites

पुनर्नवा की जड़ के चूर्ण को शहद के साथ खाएं।

6- दाद

पुनर्नवा के पौधे को पीस बाह्य रूप से लेप किया जाता है।

7- मूत्र की रुकावट urine retention पेशाब रुक जाना

  • पुनर्नवा के पत्तों के रस को दूध मिलाकर सेवन किया जाता है।
  • पुनर्नवा के पंचाग / रस / जड़ का काढ़ा/ जड़ के चूर्ण का सेवन करें।

8- सूजन

पुनर्नवा की जड़ का काढ़ा पियें और बाह्य रूप से प्रभावित स्थान पर लगाएं।

9- आर्थराइटिस, एडिमा, मोटापा, किडनी के रोग, पेशाब के रोग, बढ़ा यूरिक एसिड

पुनार्नावादी गुग्गुल का सेवन करें।

10- खांसी, अस्थमा cough, asthma

पुनर्नवा जड़ का चूर्ण / जड़ का काढ़ा पियें।

11- पित्त की अधिकता से होने वाला बुखार excess heat, fever

पुनर्नवा जड़ का दूध के साथ सेवन करें ।

12- हृदय रोग heart diseases

पुनर्नवा की जड़ और अर्जुन की छाल को दस ग्राम की मात्रा में ले कर काढ़ा बनायें। इसे दिन में दो बार पियें।

13- नींद न आना insomnia

पुनर्नवा की जड़ का काढ़ा दिन में दो बार पियें।

14- खूनी बवासीर bleeding piles

पुनर्नवा की जड़ को हल्दी के काढ़े के साथ दें।

15- गैस bloating

पुनर्नवा की जड़ का चूर्ण, हींग और काले नमक के साथ लें।

16- रसायन, टॉनिक

सुबह पुनर्नवा जड़ के चूर्ण अथवा पत्तों के रस का सेवन करें।

17- बिच्छू का डंक

रक्त पुनर्नवा के पत्ते तथा अपामार्ग की टहनियों को पीस कर बिचू के डंक पर मसलें।

नेत्र रोगों में पुनर्नवा का प्रयोग Uses of Punarnava in Eye Diseases

1- नेत्रों की फूली

पुनर्नवा की जड़ को घी में घिस कर नेत्र में लगाएं।

2- नेत्रों में खुजली

पुनर्नवा की जड़ को शहद अथवा दूध में घिस कर अंजन की तरह प्रयोग करें।

3- नेत्रों से पानी गिरना

पुनर्नवा की जड़ को शहद में घिस कर लगायें।

4- रतौंधी

पुनर्नवा की जद को कांजी में घिस कर आँखों में लगायें।

पुनर्नवा की औषधीय मात्रा Medicinal Dose of Punarnava

  1. पुनर्नवा के पौधे का रस 10-20ml की मात्रा में लिया जाता है।
  2. जड़ के काढ़े को लेने की मात्रा 50-100ml है।
  3. जड़ का चूर्ण चौथाई से एक टीस्पून की मात्रा में लेना चाहिए।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह मूत्रल है।
  2. यह विरेचक है।
  3. अधिक सेवन पर यह वमनकारी emetic है।
  4. इसका सही मात्रा में सेवन करने पर यह शरीर पर किसी भी तरह का दुष्प्रभाव नहीं डालता।

सिंघाड़ा Singhara in Hindi

$
0
0

सिंघाड़े को संस्कृत में श्रृंगाटक, श्रृंगाहक, जलफल, त्रिकोणफल, जलकंटक, हिंदी में सिंघाड़ा, बंगाली में पानीफल, मराठी में शिंगाड़ा, गुजराती में शिंघोड़ा, पंजाबी में गौनरी, तेलुगु में परिकी गड्डू और इंग्लिश में वाटर केल्ट्रॉप, इंडियन वाटर चेस्टनट खाते हैं। इसका लैटिन में नाम ट्रापा नेटंस, ट्रापा बाई स्पाईनोज़ है।

यह एक जलीय पौधा है। इसके दो प्राकर के पत्ते होते हैं, एक जो पानी के अन्दर डूबे रहते हैं और दूसरे जो सतह पर तैरते रहते हैं। ऊपर वाले तैरते पत्ते गोल, हरे रंग तथा लाल शिरा युक्त होते हैं। पत्रवृंत तीन इंच लम्बे लाल रंग के होते हैं। इसके तने बैंगनी रंग के और रोयें युक्त होते हैं। इसमें पत्तियों के कोने से सफ़ेद रंग के पुष्प आते हैं। बाद में इसमें तिकोन आकार के फल लगते हैं जो की बाद में डाली के मुड़ जाने से पानी में लटकते रहते हैं। फल के छिलके मोटे और हरे होते हैं। पकने पर यह छिलके काले – हरे रंग के हो जाते है। छिलका हटाने पर सफ़ेद रंग की मज्जा होती हैं। जिसे हम सिंघाड़ा कहते हैं।

singhara medicinal uses
By Bergin76 (Own work) [CC BY-SA 4.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0)], via Wikimedia Commons
सिंघाड़ा पूरे भारतभर में नदी, तलाब, पोखर आदि के मीठे पानी में उगाया जाता है। इसके फलों को हम विभिन्न तरीके से खाते हैं। इसे हम ताज़े फल की तरह खाते हैं। इन्हें उबाल कर भी खाया जाता है। इससे बनी सब्जी बहुत स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है। सिंघाड़े के फल को सुखा कर-पीस कर सिंघाड़े का आटा बनाते हैं, जिससे हम हलवा, बर्फी व रोटी बना सकते हैं। सिंघाड़ा व्रतों में खाया जाने वाला एक प्रमुख आहार है। क्योंकि यह एक फल है इसलिए व्रत के दौरान, जिनमे अनाज का सेवन वर्जित होता है, हम इसका हलवा या रोटी बना कर खा सकते है।

सिंघाड़े के फल पौष्टिक भोजन होने के साथ-साथ एक औषधि भी है। इसका आयुर्वेद के पुराने ग्रंथों में भी वर्णन मिलता है। इसे पुष्टिकारक, बलवर्धक, वाजीकारक फल माना गया है जिसका सेवन शरीर को ताकत देता है और धातुओं की वृद्धि करता है। इसका सेवन शरीर में कमजोरी को दूर करता है। स्त्रियों के लिए तो बहुत ही उत्तम कहा गया है। इसके सेवन से स्त्रियों में आयरन, विटामिन्स, मिनरल्स की कमी दूर होती है, साथ ही गर्भाशय मजबूत होता है। इससे असामान्य स्राव रूकता है तथा स्वस्थ्य संतान होने भी मदद होती है। पुरुषों में भी इसका सेवन वीर्य और शुक्र की वृद्धि करता है।

स्थानीय नाम

  • वैज्ञानिक नाम: Trapa natans
  • संस्कृत: Shringata, Jalaphala, Paaniphal, Trikonaphala
  • बंगाली: Paniphal, Singade, Jalfal
  • अंग्रेज़ी: Water Chestnut
  • गुजराती: Shingoda, Singoda
  • हिन्दी: Singhara, Singhada
  • कन्नड़: Singade, Gara, Simgara, Simgoda
  • मलयालम: Karimpolam, Vankotta, Jalaphalam, Karimpola
  • मराठी: Shingoda
  • उड़िया: Paniphala, Singada
  • पंजाबी: Singhade, Gaunaree
  • तमिल: Singhara
  • तेलुगु: Kubyakam, Singada
  • उर्दू: Singhara

सिंघाड़ा के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

स्वाद में सिंघाड़ा मधुर-कषाय, पचने में भारी है और स्वभाव से शीत है। यह मधुर रस हैं जिसका सेवन शरीर में धातुओं की वृद्धि करता है तथा वज़न बढ़ाता है। यह शरीर को पुष्ट करता है, दूध बढ़ाता है, जीवनीय व आयुष्य है। मधुर रस, गुरु (देर से पचने वाला) है। यह वात-पित्त-विष शामक है।

लेकिन मधुर रस का अधिक सेवन मेदो रोग और कफज रोगों का कारण है। यह मोटापा/स्थूलता, मन्दाग्नि, प्रमेह, गलगंड आदि रोगों को पैदा करता है।

यह शीत वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। शीत वीर्य औषधि के सेवन से मन प्रसन्न होता है। यह जीवनीय होती हैं। यह स्तम्भनकारक और रक्त तथा पित्त को साफ़ / निर्मल करने वाली होती हैं।

  • रस (taste on tongue): मधुर, कषाय
  • गुण (Pharmacological Action): गुरु
  • वीर्य (Potency): शीत
  • विपाक (transformed state after digestion): मधुर

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है।

मधुर विपाक, भारी, मल-मूत्र को साफ़ करने वाला होता है। यह कफ या चिकनाई का पोषक है। शरीर में शुक्र धातु, जिसमें पुरुष का वीर्य और स्त्री का आर्तव आता को बढ़ाता है। इसके सेवन से शरीर में निर्माण होते हैं।

कर्म Principle Action

  • शीतल: स्तंभक, ठंडा, सुखप्रद है, और प्यास, मूर्छा, पसीना आदि को दूर करता है।
  • पित्तहर: द्रव्य जो पित्तदोष पित्तदोषनिवारक हो। antibilious
  • वृष्य: द्रव्य जो बलकारक, वाजीकारक, वीर्य वर्धक हो।
  • श्रमहर: द्रव्य जो थकावट दूर करे।
  • शुक्रकर: द्रव्य जो शुक्र का पोषण करे।
  • ग्राही: द्रव्य जो दीपन और पाचन हो तथा शरीर के जल को सुखा दे।
  • स्तन्यजन्य: द्रव्य जो दूध का स्राव बढ़ाये।
  • गर्भस्थापना: जो गर्भ की स्थापना में मदद करे।
  • रक्त स्तंभक: जो चोट के कारण या आसामान्य कारण से होने वाले रक्त स्राव को रोक दे।

सिंघाड़ा खाने के फायदे

सिंघाड़े को कच्चा, उबाल कर अथवा इसके आटे को हम इसके स्वास्थ्य लाभ पाने के लिए प्रयोग कर सकते हैं। इसे आयुर्वेद में पचने में भारी माना गया है इसलिए पाचन शक्ति के अनुसार ही इसका सेवन करना चाहिए। बहुत अधिक मात्रा में सेवन पाचन को धीमा करता है, गैस बनाता है और कब्ज़ करता है। इसलिए जैसी पाचन शक्ति हो उसी के अनुसार आप इसकी दस से लेकर पचास ग्राम तक की मात्रा का सेवन कर सकते हैं।

  1. यह शीतल है और शरीर में अधिक गर्मी को शांत करता है और इस कारण शरीर में गर्मी के कारण होने वाले रोगों जैसे की नाक से खून गिरना, योनि से रक्त स्राव आदि को रोकता है।
  2. यह शरीर में पित्त की अधिकता को दूर करता है और एसिडिटी तथा अन्य पित्त रोगों में लाभ करता है।
  3. इसके सेवन से मेद धातु बढ़ती है और वज़न की वृद्धि होती है। इसलिए जो लोग बहुत पतले हों वे इसका हलवा बना कर सेवन करें।
  4. यह वीर्यवर्धक, शुक्रवर्धक और बलकारक है। इसके आटे की दूध के साथ फंकी लेने अथवा हलवा बनाकर खाने से वीर्य बढ़ता है।
  5. यह महिलाओं के लिए वरदान है। इसके सेवन से स्त्रियों में गर्भाशय को ताकत मिलती है और बच्चे होने के आसार भी बढ़ते है। यह गर्भावस्था में गर्भाशय से होने वाले आसामान्य रक्तस्राव को रोकने में मदद करता है और गर्भस्थ शिशु को पोषण देता है। जिन स्त्रियों में गर्भाशय की कमजोरी के कारण एबॉर्शन के आसार हों उन्हें इसका नियमत सेवन करना चाहिए। रक्त प्रदर की समस्या होने पर इसके आटे से बनी रोटी का सेवन करें।
  6. यह कब्ज़ करता है और इस कारण लूज़ मोशन होने पर इसके सेवन से लाभ होता है।
  7. यह पचने में भारी है जिस कारण देर तक पेट भरा रहता है।
  8. अतिसार, पित्त विकार हों तो इसका सेवन करके देखें।
  9. यह पौष्टिक और ज्वर नाशक है। इसमें प्रोटीन, फैट, विटामिन बी, सी, कार्बोहायड्रेट, लोहा, कैल्शियम, मग्निसियम, मैंगनीज, फॉस्फोरस, समेत बहुत से एनी फाइटोकेमिकल पाए जाते हैं। सिंघाड़े आटे का हलवा देसी घी में बनाकर खाने से शरीर की कमजोरी दूर होती है। इसमें भैस के दूध की तुलना में करीब बाइस प्रतिशत अधिक मिनरल पाए जाते हैं। सौ ग्राम सिंघाड़े का सेवन करीबी 115 कैलोरी देता है।
  10. गला बैठ जाने, टोंसिल, एनीमिया, अस्थमा, अनियमित पीरियड, रक्त के विकारों, कमजोरी, शरीर में जलन, खून गिरना, पतलापन, कामेच्छा की कमी, प्रमेह आदि में सिंघाड़े के आटे का सेवन बहुत लाभप्रद है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह शरीर में वात और कफ को बढ़ाता है। इसलिए वात और कफ प्रवृति के ओग इसका सेवन सावधानी से करें।
  2. इसके सेवन से गैस की समस्या हो सकती है।
  3. इसके नियमित सेवन से वज़न में वृद्धि होती है।
  4. यह पचने में भारी है। इसलिए पाचन की क्षमता के अनुसार ही इसका सेवन करें।
  5. कब्ज़ में इसका सेवन न करें।
  6. सिंघाड़ा खा कर तुरंत पानी न पियें।

गंभारी Gambhari Gmelina arborea in Hindi

$
0
0

गंभारी को संस्कृत में काश्मरी, काश्मर्य, गंभारी, श्रीपर्णी, भद्रपर्णी, मधुपर्णिका, हीरा, पीतरोहिणी, कृष्णवृन्ता, मधुरसा हिंदी में गम्न्हार, खम्हारी, गम्हार, गम्हारी, उड़िया में कुमार, बंगाली में गाभार, मराठी में सवन तामिल में कुम्पिल, और लैटिन में मेलिना आर्बोरेया कहते हैं। यह पूरे भारतवर्ष में नम पर्णपाती जंगलों, दक्षिण भारत, उत्त्तर-पश्चिम हिमालय प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि में पाया जाता है। यह एक औषधीय वृक्ष है जिसके सभी हिस्से किसी न किसी औषधीय प्रयोजन के लिए प्रयोग किये जाते हैं।

गंभारी भारत का मूल निवासी है तथा इसका विविरण प्राचीन आयुर्वेद के ग्रंथों में भी मिलता है। यह दशमूल की बृहत्पंचमूल में से एक है। अरणी, श्योनाक, पाढ़ की छाल, बेल और गंभारी को ‘बृहत्पंचमूल’ कहते हैं एवं दवा की तरह इनकी जड़ अथवा छाल का प्रयोग करते हैं । दशमूल का एक घटक होने से, गंभारी आयुर्वेद की अनेकों दवाओं में डाला जाता है। इसका मुख्य गुण शरीर में वात-पित्त और कफ का संतुलन करना है। यह अधिक प्यास को दूर करने वाला, रक्तपित्तशामक, बल्य, रसायन और विषघ्न है। चरक संहिता में इसके फल को विरेचन, शरीर में जलन, पित्त रोगों में प्रयोग करने का वर्णन है। शुश्रुत संहिता में गंभारी को सारिवादि गण में सम्मिलित किया गया है।

gambhari medicinal uses
By Jayesh Patil from Mumbai, India (Sivan Uploaded by uleli) [CC BY 2.0 (http://creativecommons.org/licenses/by/2.0)], via Wikimedia Commons
गंभारी का वृक्ष चालीस से साठ फुट का हो सकता है। इसकी टहनियां थोड़ी सफ़ेद सी और रोयें युक्त होती हैं। इसकी पत्तियां चार से नौ इंच लम्बी और तीन से आठ इंच तक चौड़ी हो सकती हैं। रूप में यह लट्वाका, हृदयाकार होती हैं। एक संधि पर पायी जाने वाली पत्तियां कुछ बड़ी और छोटी होती हैं। गंभारी के पुष्प पीले रंग के होते हैं। इसका फल अंडाकार और हरा होता है। पक जाने पर यह पीला-हर दीखता है। स्वाद में यह मीठा-कसैला होता है। इसके बीज लम्बे और अर्धचंद्राकार होते हैं। इसमें वसंत ऋतु पुष्प और गर्मी में फल आते हैं। गंभारी की जड़ें बाहर से हल्के रंग की और अन्दर से पीला रंग लिए होता है। स्वाद में कड़वी और लुआबी होती है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: मेलिना आर्बोरेया Gmelina arborea
  • कुल (Family): वर्बीनेसिएई Verbenaceae
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: जड़, छाल, पुष्प, पत्ते, और फल
  • पौधे का प्रकार: वृक्ष
  • वितरण: पूरे भारतवर्ष में, श्री लंका, म्यांमार, फिलिपिन्स में।
  • पर्यावास: नम अथवा शुष्क पर्णपाती वन तथा सड़कों के किनारे, बगीचों में

गंभारी के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत: Kashmari, Kashmari, Kashmarya, Kasmari, Bhadraparni, Gambhari, Katphalah
  2. असमिया: Gamari, Gomari
  3. बंगाली: Gambhar, Gamar, Gumar, gumbar
  4. अंग्रेज़ी: Candhar Tree, Candahar tree, Coomb tree, Cashmeri teak, Coomb Teak, Gamari, White Teak
  5. गुजराती: Shivan
  6. हिन्दी: Gamari, गाम्बरी, Gambhar, Gamhar, Gumbhar, कंबर, Kambhar, Khambhari, Khammara कुमार, Kumbhar, Sewan, Shewan, Shiwan
  7. कन्नड़: Shivanigida, Shivani, Kashmiri, Shivanimara, Shivane, Kumbala mara, Shewney, kuli
  8. कश्मीरी: Kashmari
  9. मलयालम: Kumizhu, Kumpil, Kumalu, Kumbil, Kumizhu
  10. मराठी: Shivan, Shewan
  11. उड़िया: Gambhari
  12. पंजाबी: Gumhar, कुम्हार
  13. तमिल: Kumishan, Kumizhan, Gumadi, cummi
  14. तेलुगु: Peggummudu, Peggummadi, Gumudu, Pedda-gumudu, tagumuda
  15. नेपाल: गाम्बरी
  16. लेपचा: Numbor
  17. गारो: Bolkobak

गंभारी का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: एस्टेरिडए Asteridae
  • आर्डर Order: लैमिऐल्स Lamiales
  • परिवार Family: वर्बीनेसिएई Verbenaceae
  • जीनस Genus: मेलिना Gmelina
  • प्रजाति Species: मेलिना आर्बोरेया Gmelina arborea Roxb।

गंभारी के संघटक Phytochemicals

जड़ में पीले रंग का तेल, अल्कलोइड, बेन्जोइक एसिड, ब्यूटरिक एसिड, टारटेरीक एसिड, राल, और कषाय द्रव्य पाए जाते हैं।

गंभारी के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

गंभारी आयुर्वेद में प्रयोग की जाने वाली एक बहुत ही महत्वपूर्ण वनस्पति है। आयुर्वेद में दवाओं को बनाने हेतु मुख्य रूप से इसके तने की छाल तथा जड़ का प्रयोग किया जाता है। यह उष्ण वीर्य अर्थात तासीर में गर्म है। इसके सेवन से भ्रम, शोष, तृषा, शूल, आम दोष, बवासीर, विष, जलन, ज्वर आदि नष्ट होते हैं। रस में यह तिक्त और कषाय है।

तिक्त रस, वह है जिसे जीभ पर रखने से कष्ट होता है, अच्छा नहीं लगता, कड़वा स्वाद आता है, दूसरे पदार्थ का स्वाद नहीं पता लगता, (नीम, कुटकी)। यह स्वयं तो अरुचिकर है परन्तु ज्वर आदि के कारण उत्पन्न अरुचि को दूर करता है। यह कृमि, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूर्छा, ज्वर, उत्क्लेश / जी मिचलाना, जलन, समेत पित्तज-कफज रोगों का नाश करता है। यह क्लेद/सड़न, मेद, वसा, चर्बी, मल, मूत्र को सुखाता है। तिक्त रस का अधिक सेवन से धातुक्षय और वातविकार होते हैं।

कषाय रस जीभ को कुछ समय के लिए जड़ कर देता है और यह स्वाद का कुछ समय के लिए पता नहीं लगता। यह गले में ऐंठन पैदा करता है, जैसे की हरीतकी। यह पित्त-कफ को शांत करता है। इसके सेवन से रक्त शुद्ध होता है। यह सड़न, और मेदोधातु को सुखाता है। यह आम दोष को रोकता है। यह त्वचा को साफ़ करता है। कषाय रस का अधिक सेवन, गैस, हृदय में पीड़ा, प्यास, कृशता, शुक्र धातु का नास, स्रोतों में रूकावट और मल-मूत्र में रूकावट करता है।

यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है।

  • रस (taste on tongue): तिक्त, कषाय (जड़) मधुर, कटु, तिक्त (तने की छाल)
  • गुण (Pharmacological Action):गुरु
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

कर्म:

  • दीपन: द्रव्य जो जठराग्नि तो बढ़ाये लेकिन आम को न पचाए।
  • पाचन: द्रव्य जो आम को पचाता हो लेकिन जठराग्नि को न बढ़ाये।
  • भेदन: द्रव्य जो बंधे या बिना बंधे मल का भेदन कर मलद्वार से निकाल दे।
  • मेद्य: बुद्धि के लिए हितकारी।
  • त्रिदोषजित: वात-पित्त और कफ को संतुलित करने वाला।
  • शोथहर: द्रव्य जो शोथ / शरीर में सूजन, को दूर करे। antihydropic
  • विषहर : द्रव्य जो विष के प्रभाव को दूर करे।
  • ज्वरहर: द्रव्य ज्वर को दूर करे।

गंभारी के फल का भी लोगों द्वारा भोजन या दवा की दवा की तरह सेवन किया जाता है। फल को वीर्यवर्धक, बलदायक, भारी, केशों के लिए हितकारी, रसायन, पाक में मधुर, शीतल, स्निग्ध, कसैला, खट्टा, आँतों को साफ़ करने वाला और वात-पित्त, अधिक प्यास, रक्तविकार। क्षय, मूत्र, कब्ज़/विबंध, जलन, वात, रक्तपित्त, क्षतक्षय, को शांत करने वाला माना गया है।

गंभारी की औषधीय मात्रा

  • फलों का रस-12-24ml
  • जड़ का काढ़ा: 25-50ml
  • पुष्प चूर्ण: 3-12gram

गंभारी के औषधीय प्रयोग

  1. गंभारी स्निग्ध, पाचक, विरेचक, बल्य श्रमहर होता है। इसकी जड़ की छाल बुखार,अजीर्ण, गंभीर शोथ में काढ़े के रूप में ली जानी चाहिए।
  2. माताओं में दूध की मात्रा को बढ़ाने के लिए इसे मुलेठी और दूध के साथ लेने चाहिए।
  3. पत्तों का रस सूजाक में लेने से लाभ होता है।
  4. इसके फलों का सेवन बुखार, अधिक प्यास, नाक से खून गिरना, रक्त पित्त, और शरीर में जलन में लाभप्रद है।
  5. यह विरेचक व शोथहर है।

पाटला –पाढर Patala Stereospermum suaveolens in Hindi

$
0
0

पाढ़र, पाढ़ल या पाटला के आयुर्वेद में कामदूती, कुम्भिका, कालवृन्तिका, स्थल्या, अमोघ, मधोर्दूती, ताम्रपुष्प, अम्बुवासिनी आदि नाम पर्याय हैं। यह एक औषधीय वनस्पति है तथा दशमूल की बृहत्पंचमूल में से एक है। पाढ़ल की छाल, अरणी, श्योनाक, बेल और गंभारी को ‘बृहत्पंचमूल’ कहते हैं एवं दवा की तरह इनकी जड़ अथवा छाल का प्रयोग करते हैं।

दशमूल का एक घटक होने से, पाढ़ आयुर्वेद की अनेकों दवाओं में डाला जाता है। इसका मुख्य गुण शरीर में वात और कफ को संतुलित करना है। पाढ़ल को चरक संहिता में शोथहर गण में और शुश्रुत संहिता में अरग्वधादि , बृहत् पंचमूल, अधोभागहर वर्ग में रखा गया है।

patala
https://www.flickr.com/photos/dinesh_valke/2499750454

पाढ़र की जड़ को दशमूल को बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह जड़ें बेलनाकार, करीब छः से नौ सेंटीमीटर लम्बी और 1-1.5 सेमी मोटी होती है। बाहर से यह भूरे-सफ़ेद रंग की, रूखी, दरार युक्त, तथा अन्दर से गहरी भूरे रंग की होती हैं। यह रेशे युक्त होती हैं तथा स्वाद में कड़वी होती हैं।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: स्टीरियोस्पेर्मम सुआवेओलेंस Stereospermum suaveolens
  • कुल (Family): बाईग्नोनीऐसेआई
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: जड़, जड़ की छाल, पुष्प, पत्ते और क्षार
  • पौधे का प्रकार: वृक्ष
  • वितरण: भारत में वेस्टर्न घाट-दक्षिण, दक्षिण-मध्य महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में, श्री लंका, म्यांमार
  • पर्यावास: नम पर्णपाती वनों में

पाढ़ल के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत: : Amogha, Madhuduti, Krishnvrinta, Tamrapushpa
  2. असमिया: Parul
  3. बंगाली: Parul
  4. अंग्रेज़ी: Trumpet flower tree, Yellow snake tree
  5. गुजराती: Podal
  6. हिन्दी: padal, Padhal, Paral, Paroli
  7. कन्नड़: Padramora, Kalaadri, Paadari
  8. मलयालम: Karingazha, Paathiri, Puuppaathiri
  9. मराठी: padal
  10. उड़िया: बोरो, Patulee
  11. पंजाबी: padal
  12. तमिल: Ampu, Ampuvakini, Patalam, Patiri, Punkali
  13. तेलुगु: Kaligottu, Kokkesa, Podira, Padiri, Ambuvasini, Patala

पाढ़ल का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • आर्डर Order: स्क्रोफुलेरिएल्स Scrophulariales
  • परिवार Family: बाईग्नोनीऐसेआई Bignoniaceae
  • जीनस Genus: स्टीरियोस्पर्मम Stereospermum
  • प्रजाति Species: स्टीरियोस्पर्मम सुआवेओलेंस Stereospermum suaveolens
  • स्टेरियोस्पर्मम चेलोनॉइड्स Stereospermum chelonoides को सफ़ेद पाढ़ल (सफ़ेद रंग के फूले के कारण) तथा स्टीरियोस्पर्मम सुआवेओलेंस Stereospermum suaveolens को ताम्रपाढ़ल (लाल-ताम्बे के रंग के फूलों के कारण) माना गया है।
  • केरल में स्टेरियोस्पर्मम टेट्रागोनम stereospermum tetragonum synonym स्टेरियोस्पर्मम पेर्सोनेटम stereospermum personatum को पाढ़ल की तरह प्रयोग किया जा है।

पाढ़ल के संघटक Phytochemicals

कड़वे पदार्थ, स्टेरोल्स ग्लाइकोसाइड, ग्लाइकोअल्कालॉयड

पाढ़ल के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

पाटला मुख्य रूप से कफ और वात को नष्ट करने वाली औषध है। यह स्वाद में तिक्त, कषाय है। यह ग्राही है और इसके सेवन से शरीर का जल सूखता है जिससे कब्ज़ हो जाती है। यह दीपनीय है और जठराग्नि को तेज करता है।

  • रस (taste on tongue):तिक्त, कषाय
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष
  • वीर्य (Potency): अनुउष्ण (बहुत अधिक गर्म नहीं)
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

कर्म

त्रिदोषहर: वात-पित्त-कफ का संतुलन करना

रुच्य: भोजन में रूचि बढ़ाने वाला

आयुर्वेदिक दवाएं

  1. दशमूल की विभिन्न दवाएं जैसे दशमूल क्वाथ, दशमूलारिष्ट
  2. अमृतारिष्ट
  3. भारंगी गुड़
  4. इन्दुकांत घी

पाढ़ल को आयुर्वेद में मुख्य रूप से निम्न रोगों में प्रयोग किया जाता है:

  1. श्वास/अस्थमा, शोथ/सूजन
  2. अर्श/बवासीर, छर्दी/उलटी
  3. हिक्का/हिचकी, तृष्णा / अधिक प्यास, अम्लपित्त
  4. रक्त विकार, मूत्र विकार
  5. विस्फोट
  6. मोटापा

पाढ़ल के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Patala / Stereospermum suaveolens in Hindi

  1. पाढ़ल के पत्ते, जड़, पुष्प, फल और बीज सभी का दवाई की तरह प्रयोग किया जाता रहा है।
  2. पत्तों को कान के दर्द, रूमेटिक दर्द, मलेरिया बुखार, पुराने अजीर्ण, और बुखार में देते हैं।
  3. पुष्पों को शरीर में जलन, पित्त-वात के रोगों, हृदय के रोगों, हिचकी, और शारीरिक कमजोरी को दूर करने के लिए दिया जाता है।
  4. फूलों को कुचलकर, शहद मिलाकर लेने से हिचकी रुकती है। इसके फूलों से बने गुलकंद को खाने से स्वास्थ्य अच्छा होता है।
  5. पत्तों और पुष्पों से बना काढ़ा ज्वर, शरीर में विष, कब्ज़, आदि में दिया जाता है।
  6. फलों का सेवन पित्त और वात रोगों में लाभप्रद है। बीजों को बाहरी रूप से सिर के दर्द /माइग्रेन में प्रयोग किया जाता है।
  7. जड़ों में ज्वरनाशक, दर्द निवारक, कब्ज़ करने के, मूत्रल, कफ निस्सारक expetorant, कार्डियो टॉनिक, कामोद्दीपक,सूजन दूर करने के, एंटीबैक्टीरियल, उल्टी रोकने तथा अस्थमा-कफ निवारक गुण पाए जाते हैं। जड़ों को अस्थमा, सूजन, बवासीर, उल्टी, इक्का, एसिडिटी, मूत्र विकार, त्वचा पर फोड़े आदि में दिया जाता है।
  8. पाढ़ल के तने की छाल को त्रिदोषज रोगों/ सन्निपात, हिक्का, उल्टी, भोजन करने में रूचि न होना, अस्थमा, गैस, जलने के घाव, पेशाब के रुक जाने और सूजन में प्रयोग करते हैं।
  9. पाढ़ल के पंचाग से बने क्षार को सात बार छान कर पेशाब रोगों, मूत्राघात, और प्रमेह में दिया जाता है।
  10. सरसों के तेल में पाढ़ल के काढ़े और पेस्ट को पका जो तेल बनता है उसे छालों और जलने के घाव पर लगाते हैं।
  11. मोटापे में पाढ़ल के काढ़े में चित्रक, सौंफ, और हींग मिलाकर देते हैं।

पाढ़ल की औषधीय मात्रा

  1. पाढ़ल की जड़ के चूर्ण/पाउडर को 5-10gram की मात्रा में लिया जा सकता है।
  2. पाटला की जड़ की छाल से बने काढ़े को 50-100ml की मात्रा में सेवन करना चाहिए।
  3. इसके पंचांग से बने क्षार को लेने की मात्रा 1-5 gram तक की है।
  4. पेड़ की छाल को 3-6gram की मात्रा में में ले सकते हैं।

बोल –मुरमकी Commiphora myrrha in Hindi

$
0
0

बोल, गंधरस, गोरस, हीराबोल, हिराबोल, सुरसा, बर्बर, पौरा आदि एक अफ़्रीकी पेड़ से प्राप्त राल-युक्त गोंद (रेजिन) के नाम हैं। इसे प्राचीन समय से अफ्रीकन देशों में उपचार के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। इसका पेड़ सुमालीलैंड, अबीसीनिया, पूर्वी अफ्रीका, अर्ब, फारस, आदि देशों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। यह भारत की वनस्पति नहीं है और इसे भारत में बाहर से आयात किया जाता है। सुमाली लैंड का बोल और मक्का का बोल सर्वोत्तम माना जाता है। भारत में मक्का का बोल मुर मक्की के नाम से बिकता है।

यह रेजिन गुग्गुल प्रजाति के एक पौधे से प्राप्त होता है। जैसे गुग्गुल पेड़ का गोंद या निर्यास ही, इसी प्रकार यह भी पेड़ के तने पर किसी कारण से हुए घाव, चोट या नुकसान से बाहर निकलता है। शुरू में यह पीले रंग का तरल होता है, लेकिन बाद में यह कुछ लाल से रंग का हो जाता है।

myrrh gum
By No machine-readable author provided. Gaius Cornelius assumed (based on copyright claims). [Public domain], via Wikimedia Commons
बोल के दाने गोल, बेडौल, और छोटे-बड़े होते हैं। इन्हें आपस में मिलाने से विभिन्न आकार और प्रकार की डलियाँ बनाई जा सकती हैं। बाहर से यह लाल रंग लिए हुए पिली-भूरी सी लगती हैं। बाहरी सतह धूल युक्त लगती है। छूने पर यह कड़े और भंगुर होते हैं। तोड़ने पर यह अनियमित से टूटते हैं। टूटा हुआ टुकड़ा पारभासी सा प्रतीत होता है। यह तेल युक्त होता है और इस पर जगह-जगह सफ़ेद रेखाएं देखी जा सकती हैं। स्वाद में यह कड़वा होता है और पानी में नहीं घुलता लेकिन अल्कोहल में घुल जाता है।

बोल को आयुर्वेद, सिद्ध और यूनानी में एक दवा की तरह से से प्रयोग करते हैं। इसमें एंटीसेप्टिक, दर्द शामक, एंटीफंगल, एंटीट्यूमर, कृमिनाशक, और घाव को ठीक करने के गुण होते हैं। बाहरी रूप से इसे मुख में सूजन, मसूड़ों की सूजन, दांतों के आस-पास सूजन, घाव, बेडसोर्स, आदि में प्रयोग करते हैं।

बाह्य रूप से लगाने के लिए इसको पीस कर पेस्ट बना कर प्रभावित स्थान पर लगाते हैं। यह पेस्ट चोट, पाइल्स, आर्थराइटिस, जोड़ों के दर्द, मांसपेशियों के दर्द आदि पर लगा सकते हैं। जिन लोगों की संवेदनशील त्वचा हो उन्हें इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: कोमीफोरा मिर्हा Commiphora myrrh अथवा बलसामोदेडेड्रोंन मिर्हा Balsamodendron myrrha Nees
  • कुल (Family): बरसेरेसिएई
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: रेसिन
  • पौधे का प्रकार: छोटा वृक्ष
  • वितरण: मध्य भारत के कुछ रेतीले हिस्से
  • पर्यावास: सोमालिया, अरब का मूल निवासी

बोल के स्थानीय नाम / Synonyms

  • वैज्ञानिक नाम: Commiphora myrrha
  • आयुर्वेदिक: बोला, बोल, Heerabola, Hirabol, Gandhrasa, Surasa, बर्बर
  • अंग्रेजी: अफ्रीकी लोहबान, African Myrrh, Arabian Myrr, Bitter Myrrh, Commiphora, Commiphora molmol, Diddin, Didin, Male Myrrh, Malmal, Mohmol, Molmol, Murr, Myrrh, Somali Myrrh, Yemen Myrrh लोहबान, सोमाली लोहबान, यमन लोहबान
  • हिंदी, बंगाली, गुजराती: बोल
  • कन्नड़: Bola
  • मराठी: Balata-bola
  • सिद्ध: Vellaibolam
  • तमिल: Vellaip-polam
  • तेलुगु: Balimtra-polam
  • यूनानी: Mur Makki, Murmakki, Bol
  • तेहरान: Khak-i-mugl, Mun-e-makki
  • फारस: Myrrha mechensis

बोल का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: रोसीडए Rosidae
  • आर्डर Order: सेपिनडेल्स Sapindales
  • परिवार Family: बरसेरेसिएई Burseraceae
  • जीनस Genus: कोमीफोरा Commiphora
  • प्रजाति Species: मिर्हा myrrh

बोल के संघटक Phytochemicals

बोल में 57%-61% गोंद, 25-40% रालिया या रेजिन, तथा 7-17% उड़नशील तेल पाया जाता है।

बोल के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

बोल स्वाद में कटु, कड़वा और काषाय है। गुण में यह लघु और रूक्ष है। स्वभाव में यह गर्म और कटु विपाक है। यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

  • रस (taste on tongue): कटु, तिक्त, कषाय
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाक, द्रव्य आमतौर पर वातवर्धक, मल-मूत्र को बांधने वाले होते हैं। यह शुक्रनाशक माने जाते हैं। और शरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।

कर्म:

  • पाचन: द्रव्य जो आम को पचाता हो लेकिन जठराग्नि को न बढ़ाये।
  • दीपन: द्रव्य जो जठराग्नि तो बढ़ाये लेकिन आम को न पचाए।
  • अनुलोमन: द्रव्य जो मल व् दोषों को पाक करके, मल के बंधाव को ढीला कर दोष मल बाहर निकाल दे।
  • कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे।
  • मेध्य: मेधा के लिए हितकारी
  • गर्भाशय शोधक: गर्भाशय को साफ़ करता है।
  • रक्त स्तंभक: जो चोट के कारण या आसामान्य कारण से होने वाले रक्त स्राव को रोक दे।
  • शोथहर: द्रव्य जो शोथ / शरीर में सूजन, को दूर करे।
  • स्वेदजनन: पसीना लाने वाला।
  • मासिकधर्म के स्राव को बढ़ाने वाला emmenagogue
  • कफ निकालने वाला expectorant
  • त्वकरोगनाशक: चमड़ी के रोग दूर करने वाला।

बोल के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Commiphora myrrha in Hindi

बोल को बाहरी और आंतरिक दोनों ही तरह से प्रयोग किया जाता है। इसे मुख्य रूप से रक्त की अशुद्धियों, कफ, खांसी, जकड़न, मासिक धर्म की परेशानियों, बुखार, मिर्गी, बुखार, कुष्ठ, आदि में प्रयोग किया जाता है। इसके सेवन से पेल्विस में खून का संचार बढ़ता है और इसलिए इसे गगर्भावस्था में प्रयोग नहीं किया जाता है। यह गर्भाशय का शोधक भी है और गर्भाशय की अशुद्धियाँ दूर करता है।

बोल को मुख रोगों में भी इसके संकोचक, एंटीसेप्टिक, और सूजन को दूर करने के गुण के लिए प्रयोग किया जाता है। इसे पानी में डाल कर गरारे करने से मसूड़ों की सूजन, मुख में छाले, गले में सूजन, आदि में लाभ होता है।

बोल को सुहागे में मिलाकर रोजाना 2 से 3 बार मसूड़ों पर धीरे-धीरे मलने से दांतों व मसूड़ों के सभी रोगों में लाभ होता है।

यह एंटीफंगल है और इसलिए इसके टिंक्चर को केलेंडूला के साथ मिलाकर बाहरी रूप से लागाते हैं।

बोल की औषधीय मात्रा

  • बोल को आंतरिक प्रयोग के लिए बहुत कम मात्रा में लिया जाता है।
  • बोल को लेने की औषधीय मात्रा आधा से लेकर 1.25 ग्राम तक की है।
  • इसे चूर्ण की तरह या गर्म पानी में डाल कर लिया जा सकता है।
  • यह पानी में अघुलनशील है लेकिन अल्कोहल में घुल जाती है, इसलिए इसका मदर टिंकचर भी प्रयोग की जा सकता है। मदर टिंक्चर को लेने की मात्रा 2.5–5.0 mL है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह तासीर में गर्म है।
  2. यह शरीर में रूक्षता करता है।
  3. यह पित्त को बढ़ाता है।
  4. यह उष्ण प्रकृति के लोगों के लिए अहितकर माना गया है।
  5. इसके दुष्प्रभाव का निवारण करने के लिए शहद, तथा मीठे और तर पदार्थों का सेवा करना चाहिए।
  6. अधिक मात्रा में सेवन पेट में जलन, एसिडिटी, आदि समस्या कर सकता है।
  7. जिन्हें पेट में सूजन हो gastritis, वे इसका सेवन न करें।
  8. अधिक मात्रा में सेवन दिल को प्रभावित करता है।
  9. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।

जानिए लोध के बारे में Lodhra Medicinal Tree in Hindi

$
0
0

लोध्र एक औषधीय वनस्पति है। इसे संस्कृत में लोध्र, तिल, तिरीटक शाबर, मालव, गाल्व, हस्ती, हेमपुष्पक आदि नामों से जाना जाता है। हिंदी में इसे लोध, बंगाली में लोधकाष्ठ, मराठी में लोध, गुजरती में लोदर, पठानीलोध, और लैटिन में सिम्प्लेकोस रेसीमोसा कहते हैं।

लोध्र वृक्ष की छाल को औषधीय प्रयाजनों के लिए मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है। छाल को आयुर्वेद में कषाय रस और बल्य माना गया है। यह अकेले ही या अन्य द्रव्यों के साथ दवाई के रूप में प्रयोग की जानेवाली औषध है। इसे आंतरिक और बाह्य दोनों की तरह से प्रयोग करते हैं। बाह्य प्रयोग में यह संकोचक, रक्तस्तंभक, वर्णरोपण, शोथहर है। आंतरिक प्रयोग में यह स्तंभक, रक्तस्तंभक, शोथहर, गर्भाशयस्राव और गर्भाशयशोथनाशक है। यह अतिसारनाशक और कुष्ठघ्न भी है।

lodhara medicinal uses
By Vinayaraj (Own work) [CC BY-SA 3.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0)], via Wikimedia Commons
अतिसार, आम अथवा रक्तअतिसार, रक्त प्रदर तथा श्वेतप्रदर के उपचार में यह बहुत लाभप्रद है। आयुर्वेद की स्त्री रोगों के लिए जानी-मानी क्लासिकल और पेटेंटेड दवाओं में लोध्र अवश्य डाला जाता है।

लोध्र पार्वतीय प्रदेश की वनस्पति है। इसके वृक्ष बंगाल, आसाम, हिमालय, तथा खसिया पहाड़ियों में पाए जाते हैं। इसके वृक्ष छोटी जाति के होते है और पत्ते बड़े, कंगूरेदार, अंडाकृति के और लम्बे होते हैं। पुष्पों का रंग सफ़ेद-पीला-लाल मिश्रित होता है। वृक्ष पर अंडाकृति का आधा इंच लम्बा फल लगता है जिसके अन्दर गुठली होती है। यह फल पकने पर बैंगनी होता है। गुठली के अन्दर दो बीज होते हैं। इसकी छाल मुलायम और गेरुए रंग की होती है। लोध की छाल में रंजक होता है और यह रंगने के भी काम आती है।

आयुर्वेद में लोध को ग्राही, हल्का, शित्रल, नेत्रों के लिए हितकार, कसैला, कफ तथा पित्तहर बताया गया है। यह रक्तपित्त, रुधिरविकार, ज्वर, ज्वारातिसार, और शोथ को हरने वाली प्रभावी औषध है।

सामान्य जानकारी

  • वानस्पतिक नाम: सिम्प्लेकोस रेसीमोसा
  • कुल (Family): सिम्प्लोकेसीऐई
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पेड़ की छाल
  • पौधे का प्रकार: वृक्ष

लोध्र के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. वैज्ञानिक नाम: लोध्र racemosa
  2. संस्कृत: Balabadhra, Balipriya, Bhillataru, Bhilli, Galava, Hastilodhraka, Hemapushpak, Kandakilaka, Kandanila, Laktakarma, Lodhra, Lodhraka, Lodhravriksha, Mahalodhra, Marjana, Rodhra, Shahara, Shaharalodhra, Shambara, Shavaraka, शुक्ला, तिलक, Tririta, Tritaka, Vanarajhata
  3. असमिया: Mugam, Bhomroti, Kaviang
  4. बंगाली: लोढ़ा, Lodhra, लोध
  5. दार्जिलिंग: Kaidai, Khoidai, Sungen
  6. अंग्रेज़ी: लोध्र की छाल, लोध ट्री, कुनैन, चीन नोरा
  7. गुजराती: Lodhar, Lodar
  8. हिन्दी: लोढ़ा, लोध
  9. कन्नड़: Lodhra
  10. कुमाऊं: लोध
  11. मलयालम: Pachotti
  12. मराठी: लोढ़ा, Lodhra, Hura, लोध
  13. नेपाल: Chamlani
  14. पंजाबी: Lodhar
  15. सिद्ध: Velli-lethi।
  16. सिंहली: Lothsumbula
  17. तमिल: Vellilathi, Vellilothram
  18. तेलुगु: Lodhuga
  19. यूनानी: लोध Pathaani, Lodapathani
  20. उर्दू: लोध, Lodhpathani

लोध्र का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मग्नोलिओफाईटा – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मग्नोलिओप्सीडा – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: डिलेनीडाए Dilleniidae
  • आर्डर Order: एबेनेल्स Ebenales
  • परिवार Family: सिम्प्लोकेसीऐई Symplocaceae
  • जीनस Genus: सिम्प्लोकोस Symplocos
  • प्रजाति Species: सिम्प्लोकोस रेसमोस रॉक्सब। Symplocos racemosa Roxb।

लोध्र के संघटक Phytochemicals

लोध्र में तीन प्रकार के क्षारीय पदार्थ होते हैं:

  1. लोटुराइन
  2. कोलोटूराइन
  3. लोटोरिडाइन

इसमें कुछ मात्रा में कार्बोनेट ऑफ़ सोडा भी पाया जाता है।

लोध्र के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

लोध स्वाद में कषाय, गुण में रूखा करने वाली और हल्की है। स्वभाव से यह शीतल है और कटु विपाक है।

यह एक काषाय रस औषधि है। कषाय रस जीभ को कुछ समय के लिए जड़ कर देता है और यह स्वाद का कुछ समय के लिए पता नहीं लगता। यह गले में ऐंठन पैदा करता है, जैसे की हरीतकी। यह पित्त-कफ को शांत करता है। इसके सेवन से रक्त शुद्ध होता है। यह सड़न, और मेदोधातु को सुखाता है। यह आम दोष को रोकता है और मल को बांधता है। यह त्वचा को साफ़ करता है। कषाय रस का अधिक सेवन, गैस, हृदय में पीड़ा, प्यास, कृशता, शुक्र धातु का नास, स्रोतों में रूकावट और मल-मूत्र में रूकावट करता है।

  1. रस (taste on tongue): कषाय astringent
  2. गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष light and drying
  3. वीर्य (Potency): शीत Cooling
  4. विपाक (transformed state after digestion): कटु Pungent

यह शीत वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। शीत वीर्य औषधि जीवनीय होती हैं। यह स्तम्भनकारक और रक्त तथा पित्त को साफ़ / निर्मल करने वाली होती हैं।

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाक, द्रव्य आमतौर पर वातवर्धक, मल-मूत्र को बांधने वाले होते हैं।

कर्म Principle Action

  1. पित्तहर: द्रव्य जो पित्तदोष पित्तदोषनिवारक हो।
  2. कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे।
  3. शोथहर: द्रव्य जो शोथ / शरीर में सूजन, को दूर करे।
  4. शीतल: स्तंभक, ठंडा, सुखप्रद है, और प्यास, मूर्छा, पसीना आदि को दूर करता है।
  5. ग्राही: द्रव्य जो दीपन और पाचन हो तथा शरीर के जल को सुखा दे।
  6. रक्तस्तंभक: जो चोट के कारण या आसामान्य कारण से होने वाले रक्त स्राव को रोक दे।
  7. चक्षुष्य: नेत्रों के लिए लाभप्रद।
  8. वर्ण्य: रंग निखारने के गुण।
  9. व्रणरोपण: घाव ठीक करने के गुण।
  10. गर्भाशयस्रावनाशक:गर्भाशय के स्राव को रोकने वाला।

रोग जिनमें लोध का प्रयोग लाभप्रद है

  1. गर्भपात, गर्भाशयस्राव
  2. मासिकधर्म की विकृति, लम्बा मासिक धर्म, खून अधिक जाना
  3. रक्तपित्त
  4. रक्तप्रदर तथा श्वेतप्रदर / सफ़ेद पानी की समस्या
  5. अतिसार, रक्तातिसार
  6. कुष्ठ, त्वचा रोग आदि।

महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक दवाएं

  1. लोध्रासव
  2. पुष्यानुग चूर्ण
  3. बृहत् गंगाधर चूर्ण

ईवकेयर, स्टिपलोन एम-२ टोन, हेमपुष्पा समेत बहुत से स्त्रियों के स्वास्थ्य के लिए बनी दवाएं

लोध्र के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Lodhra in Hindi

  1. लोध की छाल कसैली, कडवी और स्वभाव से शीतल होती है। यह आसानी से पच जाती है और कामोद्दीपक होती है।
  2. यह ऋतुस्राव / मासिक धर्म को नियमित करती है तथा रक्तपित्त और योनि से हो रहे आसामान्य रक्तस्राव को रोकती है।
  3. लोध्र मुख्य रूप से महिलाओं के लिए बनी आयुर्वेदिक दवाओं में डाली जाती है।
  4. यह पित्त की अधिकता के कारण होने वाले हाथ-पैर की जलन, नाक से खून गिरना तथा अन्य पित्तरोगों में लाभ करती है।
  5. यह गर्भाशय की सूजन को अपने शोथहर गुण से दूर करती है।
  6. यदि गर्भाशय की सूजन हो, स्राव हो रहा हो, रक्त प्रदर या श्वेत प्रदर की समस्या हो तो लोध्रासव का सेवन करें।
  7. यह आसामान्य रक्त के बहने को रोकने वाली वनस्पति है। यदि किसी को मासिक बहुत दिनों से अधिक मात्रा में हो रहा हो तो उसे २ ग्राम की मात्रा में लोध्र की छाल के चूर्ण का सेवन चीनी के साथ दिन में 3-4 बार करने से बहुत लाभ होता है।
  8. यह ज्वरनाशक है और शरीर में पित्त की अधिकता को कम करती है।
  9. इसके अतिरिक्त इसे अतिसार, गर्भाशय से होने वाले स्राव, नेत्र रोग, प्रदर रोग, रक्त पित्त, सफ़ेद पानी की समस्या, सूजन, और मुहांसों के ईलाज के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
  10. यह आँतों का संकुचन कराती है और अतिसार में लाभप्रद है।
  11. आँखों के रोगों, आँखों का दुखना, पानी बहना, सूजन। लाली सभी में इसे प्रयोग किया जाता है। आँखों की सूजन और लाली होने पर इसका लेप पलकों पर किया जाता है।
  12. रक्तपित्त जोकि नाक, गुदा, योनि आदि से आसामान्य रक्तस्राव को कहते हैं, उसमें यह अपने पित्तहर और शीतल गुण के कारण फायदा करती है।

लोध्र की औषधीय मात्रा

  • औषधीय रूप में लोध की छाल का प्रयोग किया जाता है।
  • इसे 3-5 ग्राम की मात्रा में लेते हैं।
  • इसके बने काढ़े को 50-100 ml की मात्रा में पिया जाता है।
  • बीजों के चूर्ण को लेने की मात्रा 1-3 gram है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह हॉर्मोन पर काम करने वाली औषध है।
  2. इसे निर्धारित मात्रा में लें।
  3. आयुर्वेद में यह स्त्री रोगों की प्रमुख औषधि है। इसके सेवन से पुरुष होरमोन कम होता है। इसलिए पुरुष इसे न ही लें तो बेहतर है।
  4. यह टेस्टोंस्टेरोन का स्तर कम करती है।
  5. इसे ज्यादा मात्रा में न लें।
  6. इसे खाली पेट न लें।
  7. काढ़े को तुरंत बनाकर प्रयोग करें।

जायफल के औषधीय प्रयोग और दुष्प्रभाव Nutmeg in Hindi

$
0
0

जायफल या जातीफल एक प्रसिद्ध मसाला है। यह मिरिस्टिका फ्रेगरेंस वृक्ष के फल में पाए जाने वाले बीज की सुखाई हुई गिरी है। जायफल और जावित्री दोनों एक ही बीज से प्राप्त होते हैं। जायफल की बाहरी खोल outer covering या एरिल को जावित्री Mace कहते है और इसे भी मसाले की तरह प्रयोग किया जाता है। भारत में जायफल के वृक्ष तमिलनाडु में और कुछ संख्या में केरल, आंध्र प्रदेश, निलगिरी की पहाड़ियों में पाए जाते है।

जायफल Nutmeg भारतीय रसोई में प्रमुखता से प्रयोग किया जाने वाला गर्म मसाला Garam Masala है। इसके अतिरिक्त इसे घरेलू उपचार में भी अधिकता से प्रयोग किया जाता है। यह कटु pungent, तिक्त bitter, तीक्ष्ण sharp और उष्ण hot potency है इसलिए इसमें कफनिःसारक, कफघ्न गुण हैं और यह कफ रोगों में लाभप्रद है। यह फेफड़ों से अवलम्बक कफ को दूर करता है।

nutmeg benefits

पित्तवर्धक, रुचिकारक, दीपन, अनुलोमन होने से इसे पाचन की कमजोरी में भी प्रयोग किया जाता है। आयुर्वेद में इसे वायु और कफ रोगों में अकेले ही यह अन्य द्रव्यों के साथ प्रयोग करते हैं।

जायफल को बाजिकारक aphrodisiac दवाओं और तेल को तिलाओं में डाला जाता है। यह पुरुषों की इनफर्टिलिटी, नपुंसकता, शीघ्रपतन premature ejaculationकी दवाओं में भी डाला जाता है। यह इरेक्शन को बढ़ाता है लेकिन स्खलन को रोकता है। यह शुक्र धातु को बढ़ाता है। यह बार-बार मूत्र आने की शिकायत को दूर करता है तथा वात-कफ को कम करता है।

सामान्य जानकारी

जयफल के वृक्ष ऊँचे होते हैं। इसका तना चिकना और शाखाएं नीचे झुकी हुईं होती हैं। इसके पत्ते दो इंच से लेकर चार इंच तक लम्बे होते हैं। यह देखने में कुछ-कुछ जामुन के पत्तों जैसे दीखते हैं पर सुगन्धित होते हैं। पुष्प पीले और छोटे होते हैं। वृक्ष पर जो फल आते हैं वे देखने में अमरूद जैसे होते हैं।

पके फल लाल रंग लिए हुए पीले होते हैं। जब फल फटते हैं तो बीज बाहर आता है जिस पर लाल रंग का जालीदार बीज-बाह्यवृद्धि या एरिल चढ़ा होता है। यह मेस या जावित्री है। जावित्री को अलग करने पर बीज मिलता है।

बीज के आवरण को तोड़ कर अन्दर की गुठली निकाल ली जाती है। इसे सुखा लिया जाता है और यही जायफल है। इसप्रकार जायफल बीज की मज्जा या गिरी है और जावित्री बीज पर लगा हुआ एरिल है। जायफल जितना बड़ा होता है उतना ही उत्तम होता है ।

जायफल के आसवन steam distillation द्वारा एक तेल प्राप्त होता है। यह तेल हल्का पीला रंग लिए हुए या रंगहीन होता है। इसका स्वाद और गंध जायफल जैसा ही होता है। यह जायफल का तेल Nutmeg oil है।

  • वानस्पतिक नाम: मिरिस्टिका फ्रेगरेंस
  • कुल (Family): मायरिसटेकेसेआई
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: बीज की बाहरी खोल, बीज की मज्जा, तेल
  • पौधे का प्रकार: वृक्ष
  • वितरण: मलय, सुमात्रा, श्री लंका। भारत में दक्षिण के समुद्रतटीय क्षेत्रों और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में।

जायफल के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत: Ghatastha, Jaiphala, Jati, Jatikosha, Jatiphala, Jatishasga, Kosha, Koshaka, Madashaunda, Majjasara, Malatiphala, Phala, Puta, Rajabhogya, Shakula, Sumanaphala
  2. असमिया: Jaiphal, Kanivish
  3. बंगाली: Jaiphala, Jaitri
  4. अंग्रेज़ी: नटमेग
  5. गुजराती: Jaiphala, Jayfar
  6. हिन्दी: Jaiphal
  7. कन्नड़: Jadikai, Jaykai, Jaidikai
  8. कश्मीरी: Jafal
  9. मलयालम: Jatika
  10. मराठी: Jaiphal
  11. उड़िया: Jaiphal
  12. पंजाबी: Jaiphal
  13. सिद्ध: Masikkai, Chathikkay
  14. तमिल: Sathikkai, Jathikkai, Jatikkai, Jadhikai, Jadhikkai
  15. तेलुगु: Jajikaya
  16. उर्दू: Jauzbuwa, Jaiphal (seed), Bisbaasaa (Mace)

जायफल का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  1. किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  2. सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  3. सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा Spermatophyta बीज वाले पौधे
  4. डिवीज़न Division: मैग्नोलिओफाईटा Magnoliophyta– Flowering plants फूल वाले पौधे
  5. क्लास Class: मैग्नोलिओप्सीडा Magnoliopsida – द्विबीजपत्री
  6. सबक्लास Subclass: मैग्नोलिडेएइ Magnoliidae
  7. आर्डर Order: मैग्नोलिएल्स Magnoliales
  8. परिवार Family: मायरिसटेकेसेआई Myristicaceae
  9. जीनस Genus: मायरिस्टिका ग्रोनोव Myristica Gronov
  10. प्रजाति Species:मायरिस्टिका फ्रैगरैंस Myristica fragrans– नटमग

पर्याय:

मायरिस्टिका ओफिसिनेलिस Myristica officinalis

जायफल के संघटक Phytochemicals

जायफल में 5-15% सुंगंधित उड़नशील तेल और 24% स्थिर तेल पाया जाता है। सुंगंधित उड़नशील तेल में मुख्य रूप से युजिनोल होता है। स्थिर तेल में मायरिस्टिक एसिड 61% मुख्य होता है। Dimeric phenylpropanoids I-VI, myricetin, essential oil and fixed oil।

जायफल के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

जायफल और जावित्री दोनों ही स्वाद में कटु, तिक्त, गुण में लघु और तेज है। स्वभाव से यह गर्म है और कटु विपाक है। यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

  • रस (taste on tongue): कटु, तिक्त
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, तीक्ष्ण
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाक, द्रव्य आमतौर पर वातवर्धक, मल-मूत्र को बांधने वाले होते हैं। यह शुक्रनाशक माने जाते हैं। और शरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।

कर्म:

  • वातशामक: द्रव्य जो वातदोष को कम कर दे।
  • कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे।
  • उष्ण: यह प्यास, जलन, मूर्छा करता है और घाव पकाता है।
  • ग्राही: द्रव्य जो दीपन और पाचन हो तथा शरीर के जल को सुखा दे।
  • दीपन: द्रव्य जो जठराग्नि तो बढ़ाये लेकिन आम को न पचाए।
  • वृष्य: द्रव्य जो बलकारक, वाजीकारक, वीर्य वर्धक हो।
  • अनुलोमन: द्रव्य जो मल व् दोषों को पाक करके, मल के बंधाव को ढीला कर दोष मल बाहर निकाल दे।
  • बाजीकरण: द्रव्य जो रति शक्ति में वृद्धि करे।
  • वेदनास्थापन: दर्द निवारक।
  • मुखदुर्गन्धनाशक: मुख की दुर्गन्ध दूर करने वाला।
  • यकृतउत्तेजक: लीवर को उत्तेजित करने वाला।
  • हृदयोत्तेजक: हृदय को उत्तेजना देने वाला।
  • आर्त्तवजनन: मासिक लाने वाला।

आयुर्वेद की प्रमुख औषधियाँ

जातिफलादी चूर्ण

आयुर्वेद में जातिफल को इन रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है:

  1. अतिसार
  2. जीर्ण अतिसार
  3. ग्रहणी
  4. छर्दी
  5. मुख रोग
  6. पिनासा, कास, श्वास

जायफल के तेल को निम्न रोगों में प्रयोग करते हैं:

  1. अफारा
  2. शूल
  3. आमवात
  4. व्रण के रोग
  5. पुराना अतिसार

जायफल के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Nutmeg in Hindi

जायफल कफ रोगों और पाचन रोगों में बहुत लाभप्रद है। जयफल वायुनाशक carminative, उत्तेजक, पौष्टिक, पाचक और भूख बढ़ाने वाला है। यह दीपन, पाचन और ग्राही है। जायफल का सेवन भूख बढ़ाता है, अफारा, ग्रहणी और शूल को दूर करता है। पाचन में वृद्धि करता है और अतिसार, रक्तअतिसार आदि को नष्ट करता है। जायफल अधिक कफ को नष्ट करता है।

1- अतिसार, दस्त diarrhea

  • जायफल का चूर्ण आधा से एक ग्राम की मात्रा में दिन में दो बार तक्र के साथ लें।
  • जायफल और सोंठ को पानी में घिस कर २-३ बार लेने से अतिसार दूर होता है।

2- अधिक प्यास excessive thirst

जायफल का टुकड़ा मुंह में रख कर चूसने से अधिक प्यास लगने की समस्या दूर होती है।

3- अफारा flatulence

जायफल घिसकर, सरसों के तेल में मिलाकर नाभि के पास मालिश करने से गैस में आराम होता है।

4- कम रक्तचाप / लो ब्लड प्रेशर low blood pressure

जायफल का चूर्ण 250-500 mg की मात्रा में शहद के साथ सुबह चाट कर लेना चाहिए।

5- कफ रोग, सर्दी, खांसी, गला ख़राब excessive phlegm

जायफल का चूर्ण 250-500 mg की मात्रा में शहद के साथ चाट कर लेना चाहिए।

6- दांत में दर्द tooth ache

जायफल का चूर्ण दांतों पर मलने से आराम होता है।

7- सिर का दर्द headache

  • जायफल का चूर्ण दूध में उबालकर सेवन करें।
  • जायफल को घिस कर माथे पर लगाया जाता है।

8- बच्चों को सर्दी लग जाने पर, खांसी, कफ, जुखाम, निमोनिया, सर्दी का बुखार

जायफल को पत्थर में घिस कर, शहद के साथ मिलाकर, दिन में तीन बार बच्चों को चटाना चाहिए।

9- मुहांसे acne

जायफल को घिस कर चेहरे पर लागाया जाता है।

10- पेट दर्द abdominal pain

जायफल को घी के साथ लें।

11- नींद न आना insomnia

इनसोम्निया में जायफल के पाउडर को रात को सोने से पहले गर्म दूध के साथ लें।

12- छर्दी, उल्टी, हिचकी nausea, vomiting

जायफल को घिसकर चावल के धोवन के साथ मिलाकर लेने से उल्टी रुकती है।

13- उत्तेजना की कमी, धातु की कमजोरी

जायफल का चूर्ण 250-500 mg की मात्रा में दूध / मलाई / मक्खन में मिलाकर चाट कर लेना चाहिए।

14- जायफल की औषधीय मात्रा Therapeutic dose of Nutmeg

  • जायफल और जावित्री को लेने की औषधीय मात्रा चार रत्ती (1 रत्ती=125 mg) से लेकर एक ग्राम तक की है।
  • तेल को एक बूँद से लेकर तीन बूँद तक प्रयोग किया जाता है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. जायफल को बताई गई मात्रा से ज्यादा मात्रा में सेवन न करें।
  2. अधिक मात्रा में इसका सेवन नुकसान करता है।
  3. यह मस्तिष्क पर मादक असर intoxicating, causing hallucinations, headaches, dizziness, heart palpitations करता है।
  4. यह मूढ़ता और प्रलाप पैदा करता है।
  5. अधिक सेवन से सिर चकराता है।
  6. यह हृदय को उत्तेजित करता है।
  7. लम्बे समय तक प्रयोग वीर्य में उष्णता लाता है और इसे पतला करता है।
  8. यह पित्त बढ़ाता है। इसलिए पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
  9. अधिक मात्रा में सेवन पेट में जलन, एसिडिटी, आदि समस्या कर सकता है।
  10. जिन्हें पेट में सूजन हो gastritis, वे इसका सेवन न करें।
  11. शरीर में यदि पहले से पित्त बढ़ा है, रक्त बहने का विकार है bleeding disorder, हाथ-पैर में जलन है, अल्सर है, छाले हैं तो भी इसका सेवन न करें।
  12. Drug interactions अवसाद की दवा, हाई ब्लड प्रेशर की दवा या कोई सेडेटिव ले रहे हैं, तो इसका सेवन सावधानी से करें।
  13. यह मलरोधक है।
  14. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें। Unsafe in pregnancy
  15. तेल को बुखार, उच्च रक्तचाप, शरीर में जलन आदि में प्रयोग न करें।
  16. तेल का अतिमात्रा में सेवन मदकारक intoxicating है।

चव्य –जावा पिप्पली Piper retrofractum in Hindi

$
0
0

चव्य, चविका, चाब, चब, चई, चवक, आदि पाइपर चाबा अथवा पाइपर रेट्रोफ्रैकटम के नाम है। यह पिप्पली कुल का तथा मलाया द्वीपसमूह का आदिवासी पौधा है। इसे जावा पिप्पली के नाम से भी जाना जाता है। भारतवर्ष में चव्य की लता जंगली रूप से कहीं भी नहीं पायी जाती। लेकिन कुछ प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है।

चव्य, पाइपर चाबा के सुखाये हुए काण्ड (लता के तने) होते हैं तथा इसमें अल्कालॉयड, ग्लाइकोसाइड और स्टेरॉयड पाए जाते है। यह पञ्चकोल का एक घटक है।

piper retrofractum benefits

पंचकोल चूर्ण, पांच द्रव्यों के बारीक चूर्ण को बराबर मात्रा में मिलाकर बनाया जाता है। पंचकोल के पांच द्रव्य हैं, पीपल, पीपलामूल, चित्रक, सोंठ और चव्य। यह चूर्ण पाचन की कमजोरी को दूर करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके सेवन से भूख बढ़ती है, पाचन सही होता है, गैस की शिकायत दूर होती है, तथा कफ की अधिकता भी दूर होती है। उष्णवीर्य जड़ी-बूटियों के संयोग से बनने के कारण इसे लम्बे समय तक नियमित नहीं लिया जाना चाहिए। एक सप्ताह में इसे एक दो बार ही लिया जाना चाहए। आयुर्वेद में वैसे भी पिप्पली का लम्बे समय तक प्रयोग निषेध किया गया है।

भारतीय बाजारों में चव्य की बहुत ही कम मात्रा उपलब्ध है। इसलिए काली मिर्च अथवा पिप्पली के सूखे हुए काण्ड को ही चव्य के रूप में प्रयोग कर लिया जाता है।

This page gives information about Piper chaba Hunter non Blume. SYNONYM Piper retrofractum Vahl. or Piper officinarum DC. in Hindi language. Piper chaba produces the long pepper of European commerce, and knows as Java long pepper in English and Chavi, Chavika and Chavya in Ayurveda.

It is considered to have the same properties as Indian Long Pepper / Pippali or Piper longum. It is sold in the bazars as Mothi pippali, and the stem as Chaba, Chai or Chavak.

सामान्य जानकारी

पाइपर चाबा अथवा पाइपर रेट्रोफ्रैकटम एक लता वनस्पति है। इसके तने और डालियों से जड़ें निकलती हैं। इसके पाते अन्य पाइपर जीनस के पौधे जैसे लम्बगोल, अंडाकार-भालाकार होते हैं। इसकी फलमंजरी बेलनाकार, पीपली जैसी होती हैं।

  • वानस्पतिक नाम: पाइपर चाबा
  • कुल (Family): पिपरेसीएइ
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: काण्ड
  • पौधे का प्रकार: लता
  • वितरण: भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से दक्षिण राज्यों में की जाती है।

चव्य के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत: चविका, चव्य Chavika
  2. हिन्दी: चव्य Chavya
  3. अंग्रेजी: जावा लाग पीपर, Chavya
  4. असमिया: Chepaan
  5. बंगाली: चई, Chei
  6. गुजराती: Chavka, Chavaka
  7. कन्नड़: Kadumenasinaballi, Chavya
  8. मलयालम: Kattumulaku, Kattumulakunveru
  9. मराठी: चवक Chavaka
  10. उड़िया: Chainkath
  11. पंजाबी: Chabak
  12. तमिल: Chavyam, Chevuyam
  13. तेलुगु: चेइकम Chevyamu
  14. उर्दू: Peepal Chab, Kababah

चव्य का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific

  1. किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  2. सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  3. सुपर डिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा Spermatophyta बीज वाले पौधे
  4. डिवीज़न Division: मैग्नोलिओफाईटा Magnoliophyta – Flowering plants फूल वाले पौधे
  5. क्लास Class: मैग्नोलिओप्सीडा Magnoliopsida – द्विबीजपत्री
  6. सबक्लास Subclass: मग्नोलीडेइ Magnoliidae
  7. आर्डर Order: पिप्रेल्स Piperales
  8. परिवार / कुल Family: पिपरेसीएइ Piperaceae – Pepper family
  9. जीनस Genus: पाइपर एल Piper L – pepper
  10. स्पीश Species: पाइपर चाबा
  11. लैटिन / वानस्पतिक नाम: Piper chaba Hunter non Blume.

पर्याय

  • Piper retrofractum Vahl.
  • Piper officinarum DC.

चव्य के संघटक Phytochemicals

चव्य में पिपरीन और वाष्पशील तेल होता है। इसमें अल्कालॉयड, स्टेरॉयड और ग्लाइकोसाइड भी पाए जाते है।

चव्य के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

चव्य स्वाद में कटु, गुण में रूखा करने वाला, हल्का और तेज है। स्वभाव से यह गर्म है और कटु विपाक है।

यह कटु रस औषधि है। कटु रस जीभ पर रखने से मन में घबराहट करता है, जीभ में चुभता है, जलन करते हुए आँख मुंह, नाक से स्राव कराता है जैसे की सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली, लाल मिर्च आदि।

कटु रस तीखा होता है और इसमें गर्मी के गुण होते हैं। गर्म गुण के कारण यह शरीर में पित्त बढ़ाता है, कफ को पतला करता है। यह पाचन और अवशोषण को सही करता है। इसमें खून साफ़ करने और त्वचा रोगों में लाभ करने के भी गुण हैं। कटु रस गर्म, हल्का, पसीना लाना वाला, कमजोरी लाने वाला, और प्यास बढ़ाने वाला होता है। यह रस कफ रोगों में बहुत लाभप्रद होता है। गले के रोगों, शीतपित्त, अस्लक / आमविकार, शोथ रोग इसके सेवन से नष्ट होते हैं। यह क्लेद/सड़न, मेद, वसा, चर्बी, मल, मूत्र को सुखाता है। यह अतिसारनाशक है।

इसका अधिक सेवन शुक्र और बल को क्षीण करता है, बेहोशी लाता है, सिराओं में सिकुडन करता है, कमर-पीठ में दर्द करता है। पित्त के असंतुलन होने पर कटु रस पदार्थों को सेवन नहीं करना चाहिए।

  • रस (taste on tongue): कटु
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष, तीक्ष्ण
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु

यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत।

उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाक, द्रव्य आमतौर पर मल-मूत्र को बांधने वाले होते हैं। यह शुक्रनाशक माने जाते हैं। और शरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।

कर्म Principle Action

  1. उष्ण: यह प्यास, जलन, मूर्छा करता है और घाव पकाता है।
  2. वातहर: द्रव्य जो वातदोष निवारक हो।
  3. पित्तकर: द्रव्य जो पित्त को बढ़ाये।
  4. कफहर: द्रव्य जो कफदोष निवारक हो।
  5. विरेचन: द्रव्य जो पक्व अथवा अपक्व मल को पतला बनाकर अधोमार्ग से बाहर निकाल दे।
  6. पाचन: द्रव्य जो आम को पचाता हो लेकिन जठराग्नि को न बढ़ाये।
  7. दीपन: द्रव्य जो जठराग्नि तो बढ़ाये लेकिन आम को न पचाए।
  8. भेदन: द्रव्य जो बंधे या बिना बंधे मल का भेदन कर मलद्वार से निकाल दे।

प्रमुख आयुर्वेदिक औषधियां

  1. पंचकोल चूर्ण
  2. चन्द्रामृत रस
  3. प्राणदा गुटिका आदि

रोग जिनमे चव्य लाभप्रद है

  1. अपच, बदहजमी
  2. भूख न लगना
  3. कोलिक
  4. कफ रोग
  5. शूल / गैस का दर्द
  6. कृमि

चव्य के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Chavya in Hindi

  1. चव्य को मुख्य रूप से पाचन और कफ रोगों में प्रयोग किया जाता है।
  2. पित्तवर्धक होने से यह पाचन में सहयोग करती है और उष्ण वीर्य होने से कफ को कम करती है।
  3. यह प्लीहा रोगों, गुल्म, गैस, और पेट दर्द भी प्रयोग की जाती है।
  4. यह वातहर, कफहर, पित्तकर, दीपन और पाचन है।
  5. यह प्रसव के बाद की शिथिलता और कमजोरी, तथा अफारा, बदहजमी, दर्द आदि में दी जाती है।

चव्य की औषधीय मात्रा

चव्य चूर्ण को लेने की औषधीय मात्रा एक से दो ग्राम है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह पित्त को बढ़ाती है। इसलिए पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
  2. अधिक मात्रा में सेवन पेट में जलन, एसिडिटी, आदि समस्या कर सकता है।
  3. जिन्हें पेट में सूजन हो gastritis, वे इसका सेवन न करें।
  4. शरीर में यदि पहले से पित्त बढ़ा है, रक्त बहने का विकार है bleeding disorder, हाथ-पैर में जलन है, अल्सर है, छाले हैं तो भी इसका सेवन न करें।
  5. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।

तुलसी –ऑसीमम सैक्टम Tulsi Benefits, Medicinal Uses and Caution in Hindi

$
0
0

तुलसी का भारतीय संस्कृति में पवित्र स्थान है। यह पूजनीय तथा शुभ है। तुलसी हर हिन्दू घर में विद्यमान होती है। हिन्दू धर्म की परम्परा अनुसार, तुलसी को घर में लगाने से शोभा, समृद्धि एवं स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। तुलसी की पूजा अर्चना की जाती है। इसके पत्ते देवों को अर्पित होते हैं। पत्तों का प्रसाद, पंचामृत आदि बनता है। ऐसा माना जाता है की तलसी के पौधे घर में होने से मच्छर, कीटाणु आदि नहीं पनपते और वातावरण शुद्ध रहता है। तुलसी के पौधे को भय, दुख, रोग आदि का नाशक माना गया है। हर हिन्दू के लिए तुलसी पवित्र और पूजनीय है। हमारे ऋषियों ने संभवतः इसके अनेकों स्वास्थ्यप्रद गुणों के कारण ही इसे हर घर में लगाने की परम्परा का आरम्भ किया होगा।

Read In English: Tulasi Uses in Homeopathy and Tulsi Medicinal Uses in Ayurveda

Tulasi
By Manikandan.nature (Own work) [CC BY-SA 4.0 (http://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0)], via Wikimedia Commons
तुलसी एक औषधीय वनस्पति है। आजकल किये जाने वाले वैज्ञानिक शोध भी इसके औषधीय गुणों और प्रयोगों को सही सिद्ध करते है।

डेंगू, चिकनगुनिया, फ्लू, आदि सभी वायरल जनित बुखारों में तुलसी बहुत ही सफलता से इलाज़ करती है। अन्य जड़ी बूटियों के साथ मिलाकर इसे लेने से इसका प्रभाव और बढ़ जाता है, जैसे डेंगू के बुखार में इसे गिलोय के साथ काढ़ा बनाकर दिया जाता है। कफ की अधिकता में इसे शहद के साथ देते है।

सामान्य रोगों जैसे की खांसी, जुखाम, बुखार, पेट में दर्द, सिर में दर्द, कास-श्वास, वमन, अजीर्ण, मन्दाग्नि, चरम रोग, कील-मुहांसे, पेट के कीड़े, लू लगना आदि सभी इसके सेवन से दूर होते हैं।

सामान्य जानकारी

तुलसी के पौधे घरों, उद्यानों, बागीचे आदि में लगाए जाते हैं। यह एक फुट से कुछ ऊँचे होते हैं। इसके पत्ते रगड़ने पर विशेष सुगंध आती है। इसकी मंजरियों के अन्दर छोटे भूरे-काले से गोल बीज होते हैं। तुलसी के पौधे को गमलों में भी सरलता से उगाया जाता है। बीजों को नम मिट्टी में छिड़क देने पर उपयुक्त मौसम में वे अंकुरित हो जाते है। तुलसी के पौधों के लिए काली, उर्वरक, नमी युक्त मिट्टी उपयुक्त है।

तुलसी अर्थात ओसिमम सैन्कटम की दो किस्में हैं, राम तुलसी और श्याम तुलसी।

राम तुलसी Rama Tulsi: इस तुलसी के पत्ते हल्के हरे होते हैं, मंजरियाँ भूरी सी और टहनियां कुछ सफ़ेद रंग ली हुई होती हैं।

श्याम, काली या कृष्ण तुलसी Shyama or Krishna Tulsi: इस तुलसी के पत्तों, दालों और मंजरियों का रंग कुछ गहरा – जामुनी से रंग का होता है।

गुणों में श्यामा तुलसी को रामा तुलसी से अधिक माना जाता है। बुखार, कफाधिक्य, आदि में काली तुलसी का प्रयोग अधिक लाभप्रद है। कृष्णा तुलसी में कफनाशक गुण अधिक होते हैं। यह गंध और तीक्ष्णता में भी रामा तुलसी से आधिक है। दोनों ही प्रकार की तुलसी को समान औषधीय प्रयोगों हेतु प्रयोग किया जा सकता है।

तुलसी क्योंकि रसों में उत्तम है, इसलिए आयुर्वेद में इसका नाम सुरसा भी है। सर्व सुलभ होने से यह सुलभा है और गावों में पाए जाने से यह ग्राम्या है।

  • वानस्पतिक नाम: ओसिमम सैन्कटम
  • कुल (Family): लैमीएसिएई
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पत्ते, बीज, पूरा पौधा
  • पौधे का प्रकार: छोटा पौधा
  • वितरण: पूरे भारतवर्ष में

तुलसी के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत: Tulasi, Surasa, Bhuutaghni, Suravalli, Sulabha, Manjarika, Bahumanjari, Devadumdubhi, Apetarakshasi, Shulaghni
  2. हिन्दी: तुलसी
  3. अंग्रेजी: Tulsi,Tulasi, Holy Basil
  4. असमिया: Tulasi
  5. बंगाली: Tulasi
  6. गुजराती: Tulasi, Tulsi
  7. कन्नड़: Tulasi, Shree Tulasi, Vishnu Tulasi
  8. मलयालम: Tulasi, Tulasa
  9. मराठी: Tulas
  10. पंजाबी: Tulasi
  11. तमिल: Tulasi, Thulasi, Thiru Theezai, Thulasi
  12. तेलुगु: Tulasi
  13. उर्दू: Raihan, Tulsi

तुलसी का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा Spermatophyta बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मैग्नोलिओफाईटा Magnoliophyta – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मैग्नोलिओप्सीडा Magnoliopsida – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: एस्टेरिडए Asteridae
  • आर्डर Order: लैमिऐल्स Lamiales
  • परिवार Family: लैमीएसिएई Lamiaceae
  • जीनस Genus: ओसिमम Ocimum
  • प्रजाति Species: ओसिमम सैन्कटम Ocimum sanctum

तुलसी के संघटक Phytochemicals

  1. तेल यूजीनोल Carvacrol, Caryophyllene, Nerol and Camphene etc
  2. स्टेरोल
  3. फ्लावोनोइड
  4. फैटी एसिड्स

तुलसी के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

तुलसी स्वाद में कटु, कड़वी गुण में हल्की, रूखा करने वाली, और स्वभाव से यह गर्म है। यह एक कटु विपाक औषधि है।

कटु रस जीभ पर रखने से मन में घबराहट करता है, जीभ में चुभता है। तिक्त रस, वह है जिसे जीभ पर रखने से कष्ट होता है, अच्छा नहीं लगता, कड़वा स्वाद आता है, दूसरे पदार्थ का स्वाद नहीं पता लगता।

कटु रस तीखा होता है और इसमें गर्मी के गुण होते हैं। गर्म गुण के कारण यह शरीर में पित्त बढ़ाता है, कफ को पतला करता है। यह पाचन और अवशोषण को सही करता है। इसमें खून साफ़ करने और त्वचा रोगों में लाभ करने के भी गुण हैं। कटु रस औषधियां गर्म, हल्की और पसीना लाने वाली होती हैं।

तिक्त रस, स्वयं तो अरुचिकर है परन्तु ज्वर आदि के कारण उत्पन्न अरुचि को दूर करता है। यह कृमि, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूर्छा, ज्वर, उत्क्लेश / जी मिचलाना, जलन, समेत पित्तज-कफज रोगों का नाश करता है।

तुलसी को आयुर्वेद में उष्ण माना गया है परन्तु यह क्योंकि पसीना लाती है इसलिए शरीर की अतिरिक्त गर्मी और ज्वर में लाभप्रद है। यह उष्ण गुण के कारण अस्थमा और कफ रोगों में भी अच्छे परिणाम देती है।

  • रस (taste on tongue): कटु, तिक्त (कड़वी)
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, रुक्ष
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): कटु  विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है। कटु विपाक, द्रव्य आमतौर पर मल-मूत्र को बांधने वाले होते हैं और शरीर में गर्मी या पित्त को बढ़ाते है।
  • दोष: वात और कफ कम करना, पित्त वर्धक
  • स्रोत: श्वशन, पाचन, तंत्रिका, परिसंचरण, और मूत्र अंग

कर्म Principle Action

  1. दीपन: द्रव्य जो जठराग्नि तो बढ़ाये लेकिन आम को न पचाए।
  2. स्वेदल: द्रव्य जो स्वेद / पसीना लाये।
  3. श्वास-कासहर: द्रव्य जो श्वशन में सहयोग करे और कफदोष दूर करे।
  4. हृदय: द्रव्य जो हृदय के लिए लाभप्रद है।
  5. कुष्ठघ्न: द्रव्य जो त्वचा रोगों में लाभप्रद हो।
  6. मूत्रकृच्छघ्न: द्रव्य जो पेशाब की जलन में लाभप्रद हो।
  7. कफनिःसारक: द्रव्य जो श्वासनलिका, फेफड़ों, गले से लगे कफ को बलपूर्वक बाहर निकाल दे।
  8. कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे।
  9. वातहर: द्रव्य जो वातदोष निवारक हो।
  10. पित्तकर: द्रव्य जो पित्त को बढ़ाये।

औषधीय गुण Biomedical Action

  1. जीवाणुरोधी Antibacterial
  2. आक्षेपनाशक Antispasmodic
  3. सुगंधित Aromatic
  4. वायुनाशी Carminative
  5. स्वेदजनक Diaphoretic
  6. कफ निस्सारक Expectorant
  7. ज्वरनाशक Febrifuge
  8. स्नायविक विकार को दूर करने वाली Nervine

रोग जिनमे तुलसी प्रयोग लाभप्रद है

  1. किसी भी कारण से होने वाला ज्वर / बुखार fever
  2. श्वास, कास asthma, cough-coryza
  3. हिक्का hiccups
  4. छर्दी nausea-vomiting
  5. कृमिरोग worm isfestations
  6. पार्श्वशूल pain in ribs
  7. त्वचा रोग skin diseases
  8. पथरी stones
  9. इनफर्टिलिटी infertility
  10. वात-कफ रोग diseases due to vitiation of Vata and Kapha

तुलसी का शरीर पर प्रभाव

तुलसी का सेवन सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। इसका विशेष प्रभाव पाचन, फेफड़ों, तंत्रिकाओं nerves और रस धातु पर होता है।

1- फुफ्फुस lungs

तुलसी के सेवन से फेफड़ों में जमा कफ और ऊपरी श्वशन अंगों से बलगम दूर होता है। स्वेदक होने के कारण यह पसीना लाती है, बुखार- फ्लू में मदद करती है।

प्रवाहस्रोतों पर काम करने के गुण के कारण, तुलसी को अस्थमा में ब्रोंकाइटिस, राईनाइटिस तथा अन्य श्वशन तन्त्र के एलर्जी के कारण होने वाले रोगों में प्रयोग किया जाता है। यह फेफड़ों की क्षमता में वृद्धि कर सकती है। तुलसी शरीर से विषाक्त पदार्थों को साफ करती है और छाती के संक्रमण के होने वाले बुखार में भी लाभप्रद है।

2- पाचन प्रणाली, पाचन तंत्र, या आहार तंत्र digestive system

  • तुलसी के सेवन से पाचन वायु का आँतों में सही से प्रवाह होता है। यह अपान वायु को नीचे की तरह ले जाने वाली औषध है।
  • अपान वायु अन्डकोषों, मूत्राशय, नाभि, उरू, गुदा में में रहती है तथा इसका काम मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकालना है। जब यह कुपित होती है तब मूत्राशय और गुदा से संबंधित रोग, जैसे की अफारा, शूल, मूत्रकृच्छ आदि, होते हैं।
  • तुलसी का औषधीय मात्रा में सेवन भूख और पाचन में सहयोगी है। यह क्योंकि उष्ण वीर्य है इसलिए अग्नि को बढ़ाते हुए मेद अर्थात मोटापे को कम करती है।
  • यह रक्त में शर्करा के स्तर, और कोलेस्ट्रोल को भी कम करती है।

3- तंत्रिका तन्त्र पर तुलसी का प्रभाव

  • यह तंत्रिका तन्त्र में उत्तेजना लाती है जिस कारण से भ्रम आदि दूर होते हैं। यह सिर के दर्द, अधिक वायु के कारण सिर के दर्द आदि में लाभप्रद है।
  • यह रक्त प्रवाह को बढ़ाती है और शरीर से जकड़न दूर करती है।

4- पुरुषों के रोगों में तुलसी के बीजों का प्रयोग

तुलसी के बीज Tulasi Seeds धातुपौष्टिक गुणों से युक्त है। यह स्निग्ध होते हैं। बीज वातशामक, दीपन, पाचन, हृदय के लिए हितकर, विषहर हैं। यह वीर्यवर्धक, पुष्टिकारक, और धातुवर्धक हैं।

5- धातुपौष्टिक प्रयोग

  • धातु वृद्धि के लिए, तुलसी के बीजों को आधा से लेकर दो ग्राम की मात्रा में लिया जाता है।
  • इसके बीजों को सादा या केवल कत्था – चूना लगे पान के साथ नित्य प्रातः और शाम खाली पेट लेते हैं।
  • जो लोग इसे पान के साथ नहीं लेना चाहते, वे इसे पुराने गुड़ के साथ ले सकते हैं।
  • यह प्रयोग वीर्य को पुष्ट करता है और खून को साफ़ करता है।
  • इसे आवश्कताअनुसार, एक सप्ताह से लेकर एक महीने तक ले सकते है।
  • अधिकतम चालीस दिन तक यह प्रयोग किया जा सकता है।

6- स्वप्न दोष में

तुलसी के बीजों को पीस कर शहद के साथ सेवन करना चाहिए।

7- वीर्य की कमजोरी में

तुलसी के बीज 50 gram, सफ़ेद मुसली 40 gram, और मिश्री 60 gram का चूर्ण बनाकर रख लेना चाहिए और इसे दैनिक, एक बार 10 ग्राम की मात्रा में दूध के साथ लेना चाहिए।

8- धातुक्षीणता में

तुलसी के बीजों को २ ग्राम की मात्रा में एक कप पानी में रात भर भिगो देना चाहिए। सुबह इसे अच्छी तरह मसल कर पीना चाहिए।

तुलसी के स्वास्थ्य लाभ Health Benefits of Tulsi

  1. तुलसी हर प्रकार के ज्वर में उपयोगी है। इसके ताज़े रस को एक-दो चम्मच की मात्रा में दिन में दिन में दो बार लेने से किसी भी कारण से होने वाले बुखार में लाभ होता है।
  2. तुलसी हृदय के लिए टॉनिक है।
  3. यह पित्त वर्धक है भूख व पाचन को बढ़ाने वाली है।
  4. इसके सेवन से कफ और वात की अधिकता से होने वाले रोग दूर होते हैं।
  5. यह विष, कृमि, उल्टी, अस्थमा, और त्वचा रोगों में अत्यंत लाभप्रद है।
  6. तुलसी के पत्तो के सेवन से सर्दी, खांसी, जुखाम, बुखार, इम्युनिटी की कमी, तथा अनेकों तरह के रोग दूर होते हैं।
  7. यह मन को शांत रखती है और अवसाद तथा तनाव को दूर करती है।
  8. तुलसी के पत्तों का सेवन उर्जा देता है, हार्मोन का संतुलन करता है, संक्रमण से बचाता है, और तनाव को दूर करता है।
  9. यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है।
  10. तुलसी के पांच पत्तों का दैनिक सेवन व्यक्ति को स्वस्थ्य रखता है।

तुलसी के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Tulsi in Hindi

तुलसी के अनेकों औषधीय प्रयोग हैं। यह सभी प्रकार के ज्वर, चर्म रोग, मूत्रकृच्छ, पांडू रोग, कास-श्वास, वात रोग, कफ रोग, मासिक के दौरान अधिक रक्त स्राव, बंध्यत्व, आदि में घरेलू उपचार की तरह प्रयोग की जा सकती है।

1- मन्दाग्नि, पाचन की कमजोरी

तुलसी के पत्तों का रस 1 चम्मच, को अदरक के रस और नीम्बू के रस के साथ मिलाकर चाट कर लेना चाहिए।

2- अपच, बदहजमी :तुलसी के पत्तों का रस, काली मिर्च चूर्ण के साथ मिलाकर लेना चाहिए।

3- पेट में दर्द : तुलसी के पत्तों का रस, अदरक के रस के साथ मिलाकरपीना चाहिए।

4- उल्टी / छर्दी : तुलसी के पत्तों का रस, शहद के साथ मिला कर चाटना चाहिए।

5- पेट के कीड़े : तुलसी के पत्तों को सुबह खाली पेट चबा कर लेना चाहिए।

6- बवासीर : तुलसी के बीजों का चूर्ण खाने से लाभ होता है।

7- ज्वर : तुलसी के पत्तों का रस, काली मिर्च मिलाकर पियें।

8- मलेरिया के बुखार में तुलसी का रस, 12 ml की मात्रा में दिन में तीन बार लें।

9-कफ के बुखार में, तुलसी का रस, काली मिर्च का चूर्ण एक ग्राम को चार ग्राम शहद के साथ लें।

10- मंद ज्वर में तुलसी के पत्तों का रस एक तोला को पुदीने के रस एक तोला, के साथ लेना चाहिए। 11-

11-पुराना बुखार और विषम ज्वर में, तुलसी के पत्तों का रस दिन में तीन बार लेना चाहिए।

12- फ्लू में, तुलसी के पत्तों का रस का अजवाइन और सोंठ के साथ लेना चाहिए।

13- वात विकार

तुलसी के पत्तों का रस, काली मिर्च को घी के साथ लेना चाहिए।

14- मुख में छाले

तुलसी के पत्तों को चबाएं।

15- सिर का दर्द

तुलसी के पत्तों का रस, नीम्बू के रस के साथ मिला कर लेना चाहिये।

16- हृदय को ताकत देना

तुलसी के पत्ते 5-6, काली मिर्च 3-4 दाने को 3-4 बादाम के साथ पीस कर खाना चाहिए।

17- हिचकी

तुलसी के पत्तों का रस शहद मिला कर सेवन करें।

18- सर्दी खांसी, जुखाम, सर्दी के कारण बुखार

  • तुलसी के पत्तों और काली मिर्च के कुछ दानों का काढ़ा बनाकर, शहद मिलाकर पीना चाहिए।
  • तुलसी के पत्तों का रस, शहद क्र साथ लें।
  • तुलसी के पत्तों का रस, अदरक का रस, काली मिर्च को शहद के साथ मिलाकर चाटें।

19- मुहांसे

मुहासों पर तुलसी के पत्तों को पीस कर लगाना चाहिए।

20- त्वचा रोगों में

तुलसी पत्तों से सिद्ध तेल कप प्रभावित स्थान पर लगाना चाहिए। तेल बनाने के लिए, तुलसी के पत्तों का कल्क / पेस्ट, सरसों के तेल में पकाना चाहिए। जब सारा पानी उड़ जाए और तेल बचे तो इसे छान लेना चाहिए और त्वचा रोगों पर लगाना चाहिए।

तुलसी की औषधीय मात्रा

  1. तुलसी के पत्तों को लेने की औषधीय मात्रा 7ml से 15 ml है।
  2. तुलसी के सूखे पत्तों के चूर्ण को 1 gram से लेकर 9 gram तक की मात्रा में ले सकते हैं।
  3. पत्तों से बने काढ़े को 50 -100 ml की मात्रा में ले सकते हैं।
  4. बीजों के चूर्ण को लेने की मात्रा एक से दो माशा या 1-2 gram है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. तुलसी का प्रयोग श्वशन रोगों में लाभप्रद है। परन्तु यह ध्यान रखें यह उष्ण वीर्य और पित्त वर्धक है। इसलिए यदि कफ दोष के साथ पित्त दोष भी है तो कृपया तुलसी का सेवन किसी पित्त कम करने वाली औषधि के साथ करें।
  2. पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
  3. कुछ लोगों में औषधीय मात्रा में तुलसी का सेवन पित्त को कुपित कर सकता है।
  4. तुलसी का अन्य जड़ी-बूटी के साथ किसी भी प्रकार का ड्रग इंटरेक्शन नहीं देखा गया है।
  5. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।
  6. तुलसी का प्रयोग बहुत लम्बे समय तक अधिक मात्रा में न करें।
  7. इसे बहुत छोटे बच्चों को न दें।

विधारा Vidhara (Argyreia nervosa) in Hindi

$
0
0

विधारा एक लता है जो की पूरे भारतवर्ष में पायी जाती है। इसे हिंदी में समुद्र शोख, बांसा, घबेल, समुद्र पात, घावपात, घावबेल और बिधारा के नाम से जाना जाता है। आयुर्वेद में इसे वल्लरी, वृद्धदारु, वृद्धदारुक, वृष्यगंधिका, सुपुष्पिका, बसंतरी, तथा अंग्रेजी में बेबी रोजवुड, एलीफैंट क्रीपर कहते हैं। यह मुख्य रूप से गर्म प्रदेशों में पायी जाती है। इसे बगीचों, उद्यानों में भी सजावट के रूप में लगाया जाता है।

विधारा एक औषधीय वनस्पति है। आयुर्वेद में इसका एक रसायन औषधि की तरह बहुत प्रयोग किया जाता है। विधारा की जड़ों को तंत्रिका तंत्र के लिए टॉनिक nervine tonic, वाजीकारक aphrodisiac और बलवर्धक दवाओं में बहुतायात से इस्तेमाल किया जाता है। इसे अन्य वाजीकारक, बल-वीर्य-शुक्रल द्रव्यों जैसे की अश्वगंधा, शतावरी, तालमखाना आदि के साथ मिलाकर पुरुषों के लिए अच्छी औषधियों का निर्माण किया जाता है।

Vidhara medicinal uses

विधारा का सेवन शरीर में वीर्य की वृद्धि करता है। यूनानी दवाओं में इसके बीजों को अनैच्छिक वीर्य गिरने spermatorrhoea और सेक्स टॉनिक की तरह प्रयोग किया जाता है। यह एक वात शामक औषधि है और वात रोगों जैसे की गठिया, रूमेटिज्म, शीघ्रपतन आदि में अच्छे परिणाम देती है। यह मुख्य रूप से मानसिक रोगों, तंत्रिका तंत्र के रोगों rheumatism, diseases of the nervous system और वात-कफ रोगों की औषधि है।

सामान्य जानकारी

  1. विधारा की लता पर सफ़ेद रोयें और होते हैं। काण्ड मज़बूत और सफ़ेद से लगते हैं।
  2. पत्ते हृदयाकार और आठ से तीस सेंटीमीटर व्यास के होते हैं। पत्तों के पीछे के पृष्ठ पर सफ़ेद रोयें होते हैं।
  3. पुष्प व्यास में दो-तीन इंच लम्बे होते हैं। इनका आकार घंटी के जैसा होता है। पुष्पों का रंग बाहर से सफ़ेद और अन्दर से गुलाबी जामुनी होता है।
  4. इसके फल गोल होते हैं। कच्चे फल हरे व पकने पर पीले धूसर होते हैं।
  5. पके बीज जब फट जाते हैं तो उनमें से तीन धार वाले सफ़ेद-भूरे बीज निकलते हैं।
  6. वर्षा से सर्दियों तक इसमें फूल आते है और इसके बाद इसमें फल लगते हैं।
  • वानस्पतिक नाम: अर्जेरिया नर्वोसा,  अर्जेरिया स्पेसियोसा
  • कुल (Family): कॉनवॉलवूलेसीआए
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: जड़, पत्ते और बीज
  • पौधे का प्रकार: काष्ठीय लता
  • वितरण: पूरे भारत में
  • पर्यावास: भारत के गर्म पर्णपाती वनों में, बगीचों में

विधारा के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत: Vriddhadaruka, Vriddhadaru, Vriddhadaraka, Bastantri, Sthavira, Sthaviradaru, Atarunadaru, Samudrashosha, Vridhadaru, Antaha Kotarapushpi, Chagalantri वृद्धदारुक, आवेगी, छगन्त्री और इंश्यगन्धिका
  2. हिन्दी: Samandar-kaa-paat, Samundarsosh, Ghaavapattaa, Vidhaaraa
  3. अंग्रेजी: Elephant Creeper
  4. बंगाली: Bijataadaka, Bridhadarak बिचतारक, बीज ताड़क, गुगुली
  5. गुजराती: Samudara Sosha, Varadhaaro, Shamadrasosh
  6. कन्नड़: Samudrapala, Samudraballi चन्द्रपाद
  7. मलयालम: Samudra Pacchha, Samudra-Pala, Marikkunn Marututari
  8. मराठी: Samudrashok
  9. उड़िया: वृद्धोतोरको, मुंडानोई
  10. तमिल: Ambgar, Samuddirapacchai समुद्धिरपच्छदू
  11. तेलुगु: Samudrapaala
  12. उर्दू: Samunder sokh, Samandarotha, Samandar shokh
  13. खासी: जतप मासी

विधारा का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  • किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
  • सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  • सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा Spermatophyta बीज वाले पौधे
  • डिवीज़न Division: मैग्नोलिओफाईटा Magnoliophyta – Flowering plants फूल वाले पौधे
  • क्लास Class: मैग्नोलिओप्सीडा Magnoliopsida – द्विबीजपत्री
  • सबक्लास Subclass: एस्टेरिडए Asteridae
  • आर्डर Order: सोलेनेल्स Solanales
  • परिवार Family: कॉनवॉलवूलेसीआए Convolvulaceae
  • जीनस Genus: अर्जेरिया Argyreia
  • प्रजाति Species: अर्जेरिया नर्वोसा Argyreia nervosa (Burm. f.) Bojer – एलीफैंट क्रीपर

दूसरे लैटिन पर्याय

  1. अर्जिरिया स्पेसियोसा Argyreia speciosa (Burm. f.) Bojer
  2. कोन्वोल्वुलस नर्वोसस Convolvulus nervosus Burm. f.
  3. कोन्वोल्वुलस स्पेसियोसस Convolvulus speciosus L. f.
  4. रिविया नर्वोसा Rivea nervosa (Burm. f.) Hallier f.

विधारा जड़ के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

विधारा की जड़ स्वाद में कटु, कड़वी,कषाय गुण में हलकी है। स्वभाव से यह गर्म है और मधुर विपाक है। यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

  1. रस (taste on tongue): कटु, तिक्त, कषाय
  2. गुण (Pharmacological Action): लघु, स्निग्ध
  3. वीर्य (Potency): उष्ण
  4. विपाक (transformed state after digestion): मधुर

कटु रस जीभ पर रखने से मन में घबराहट करता है, जीभ में चुभता है, जलन करते हुए आँख मुंह, नाक से स्राव कराता है जैसे की सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली, लाल मिर्च आदि। कटु रस तीखा होता है और इसमें गर्मी के गुण होते हैं। गर्म गुण के कारण यह शरीर में पित्त बढ़ाता है, कफ को पतला करता है। यह पाचन और अवशोषण को सही करता है। इसमें खून साफ़ करने और त्वचा रोगों में लाभ करने के भी गुण हैं। कटु रस गर्म, हल्का, पसीना लानेवाला और प्यास बढ़ाने वाला होता है। यह रस कफ रोगों में बहुत लाभप्रद होता है। गले के रोगों, शीतपित्त, अस्लक / आमविकार, शोथ रोग इसके सेवन से नष्ट होते हैं। यह क्लेद/सड़न, मेद, वसा, चर्बी, मल, मूत्र को सुखाता है।

तिक्त रस, वह है जिसे जीभ पर रखने से कष्ट होता है, अच्छा नहीं लगता, कड़वा स्वाद आता है, दूसरे पदार्थ का स्वाद नहीं पता लगता, जैसे की नीम, कुटकी। यह स्वयं तो अरुचिकर है परन्तु ज्वर आदि के कारण उत्पन्न अरुचि को दूर करता है। यह कृमि, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूर्छा, ज्वर, उत्क्लेश / जी मिचलाना, जलन, समेत पित्तज-कफज रोगों का नाश करता है।

कषाय रस जीभ को कुछ समय के लिए जड़ कर देता है और यह स्वाद का कुछ समय के लिए पता नहीं लगता। यह गले में ऐंठन पैदा करता है, जैसे की हरीतकी। यह कफ को शांत करता है। इसके सेवन से रक्त शुद्ध होता है। यह सड़न, और मेदोधातु को सुखाता है। यह आम दोष को रोकता है और मल को बांधता है। यह त्वचा को साफ़ करता है।

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है।

मधुर विपाक, भारी, मल-मूत्र को साफ़ करने वाला होता है। यह कफ या चिकनाई का पोषक है। शरीर में शुक्र धातु, जिसमें पुरुष का वीर्य और स्त्री का आर्तव आता को बढ़ाता है। इसके सेवन से शरीर में निर्माण होते हैं।

कर्म Principle Action

  1. विषहर : द्रव्य जो विष के प्रभाव को दूर करे।
  2. कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे।
  3. वातहर: द्रव्य जो वातदोष निवारक हो।
  4. पित्तकर: द्रव्य जो पित्त को बढ़ाये।
  5. रसायन: द्रव्य जो शरीर की बीमारियों से रक्षा करे और वृद्धवस्था को दूर रखे।
  6. वृष्य: द्रव्य जो बलकारक, वाजीकारक, वीर्य वर्धक हो।
  7. बल्य: द्रव्य जो बल दे।
  8. अधोभागहर: द्रव्य जो विरेचन करे।
  9. मेद्य: द्रव्य जो बुद्धि के लिए उत्तम हो।
  10. रुच्य: द्रव्य जो भोजन में रूचि बढ़ाये।
  11. स्वर्य: द्रव्य जो स्वर को अच्चा करे।
  12. कंठ्य: द्रव्य जो गले के लिये अच्चा हो।
  13. अस्थिसंधानकारी: द्रव्य जो हड्डियों को मज़बूत करे।
  14. कान्तिकर: द्रव्य जो कान्ति दे।

विधारा को आयुर्वेद में निम्न रोगों में प्रयोग किया जाता है:

  1. गुल्म Gulma
  2. मूत्रकृच्छ Mutrakricchra
  3. अरुचि Aruchi
  4. हृदय शूल Hridruja
  5. गैस anaha
  6. अर्श Arsha
  7. कोलिक shula
  8. वातरोग Vataruja
  9. वातरक्त Vatarakta
  10. आमवात amavata
  11. शोष shopha
  12. मेह रोग Meha
  13. कृमि Krimi
  14. पांडु Pandu
  15. क्षय Kshaya
  16. कास Kasa
  17. उन्माद Unmada
  18. मिर्गी Apasmara
  19. विशुचिका Visuchi
  20. हाथीपाँव shlipada

दवा के रूप में शरीर पर असर Biomedical Action

  1. शरीर में निर्माण करने वाला Anabolic
  2. पीड़ाहर एनाल्जेसिक Analgesic
  3. आक्षेपनाशक Antispasmodic
  4. कामोद्दीपक Aphrodisiac
  5. स्निग्घकारक प्रदाह-शामक Emollient
  6. भ्रान्तिजनक Hallucinogen
  7. टॉनिक Tonic

विधारा के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Vidhara in Hindi

विधारा को आयुर्वेद में टॉनिक और आयुष्य औषधि माना गया है। यह बुद्धिवर्धक, कान्तिवर्धक, वीर्यवर्धक, कामोद्दीपक, अग्निदीपक, गर्म, चरपरी, कसैली, पौष्टिक, और वात-कफ रोग नाशक है। इसके सेवन से खांसी, प्रमेह, वातरक्त, आमवात, शीघ्रपतन, उपदंश आदि रोग दूर होते है। विधारा के पत्तों की असम और बिहार में सब्जी भी बनाई जाती है। इसके बीजों को यूनानी दवाओं में बलवर्धक औषधि की तरह प्रयोग किया जाता है।

इसके पत्तों को घावबेल तथा घाव पात कहते हैं क्योंकि यह घावों को जल्दी ठीक करता है।

गठिया gout

विधारे का क्वाथ, शतावरी की जड़ के चूर्ण के साथ लिया जाता हैं

रूमेटिज्म, वातरक्त Rheumatism

  • विधारा की जड़, अश्वगंधा की जड़, सोंठ और मिश्री को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें। इस चूर्ण को पांच – दस ग्राम की मात्रा में गर्म पानी के साथ लें।
  • पत्तों अथवा जड़ का पेस्ट प्रभावित स्थान पर लगाकर, मुलायम सूती कपड़े से बाँधा जाता है।

बुद्धि – स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए Intelligence promoting

विधारे की जड़ के चूर्ण को शतावरी के रस की सात भावना देकर सुखाकर जो चूर्ण बनता है उसे एक दो चम्मच की मात्रा को नियमित घी के साथ बनाका चाट कर लिया जाता है।

उपदंश Syphilis

विधारे और त्रिफला का क्वाथ बनाकर पीने से उपदंश में लाभ होता है।

श्लीपद filaria

  • श्लीपद में विधारे की जड़ का चूर्ण कांजी के साथ पिया जाता है।
  • 2 ग्राम बीजों के चूर्ण को 7-14 ml गौ मूत्र के साथ लें।

जलोदर dropsy

विधारे की जड़ का चूर्ण 3 ग्राम की मात्रा में लेते हैं।

मूत्रकृच्छ Strangury  

इसके पत्तों को पानी में भिगो देते हैं और इस पानी में मिश्री मिलाकर पीते हैं।

हाइड्रोसील Hydrocele

पत्तों का पेस्ट प्रभावित स्थान पर लगाकर, मुलायम सूती कपड़े से बाँधा जाता है। ऐसा एक सप्ताह में तीन बार करते हैं।

घाव, कटना wounds, cuts

विधारा की पत्तियों (maturative and absorptive) को घाव पर पुल्टिस emollient poultices बनाकर लगाया जाता है।

सेप्टिक घाव, अल्सर आदि से पस निकालने के लिए, गैंग्रीन gangrene

  • विधारा के पत्तों के रस से घाव धोएं।
  • विधारा के पत्तों का पेस्ट बाहरी रूप से लगायें।

फोड़े, पस वाले घाव, एब्सेस boils, abscess 

विधारा के पत्तों पर एरंड तेल लगायें और गर्म क्र लें। इसे प्रभावित स्थान पर पट्टी की सहायता से बाँध लें।

खूनी पेचिश, अल्सरेटिव कोलाइटिस, मासिक में अधिक रक्तस्राव

विधारा के दो-तीन पत्ते लेकर रस निकाल लें और एक कप पानी में मिला लें। इसे सुबह खाली पेट पी लें।

बलवर्धन Strength increasing

विधारा के तने के चूर्ण, तालमखाना के बीजों का चूर्ण और अश्वगंधा की जड़ का चूर्ण बराबर मात्रा में मिलाकर, 5 ग्राम की मात्र में लेने से शरीर में बल की वृद्धि होती है।

वाजीकारक aphrodisiac

विधारा जड़ का चूर्ण तीन से पांच ग्राम की मात्रा में लें।

वीर्य का पतलापन, कम शुक्राणु low sperm count

विधारा की जड़, असंगध एवं शतावर समान मात्रा में लेकर, पीस कर चूर्ण बनालें। इस चूर्ण को 6 ग्राम की मात्रा में गाय के दूध के साथ, सुबह और शाम लें। यह प्रयोग वीर्य को गाढ़ा करता है और शुक्राणुओं की संख्या बढ़ाता है।

वीर्य की कमी

बीजों का पाउडर एक – दो ग्राम की मात्रा में 5 ग्राम घी के साथ लें।

विधारा की औषधीय मात्रा

विधारा की साफ की हुई, सुखाई और कपड़छन चूर्ण की हुई जड़ों को लेने की औषधीय मात्रा 3-5 ग्राम है।

इसके तने / काण्ड के चूर्ण को भी इसी मात्रा में लिया जा सकता है।

बीजों को आंतरिक प्रयोग से पहले शुद्ध किया जाता है। शुद्ध करने के लिए अपामार्ग के रस अथवा नमक के पानी में भिगोते है और फिर धूप में सुखाते हैं। बीजों को बहुत ही कम मात्रा में लेते हैं क्योंकि यह नारकोटिक होते हैं। बीजों को लेने की मात्रा आधा से एक ग्राम है।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. यह पित्त को बढ़ाता है। इसलिए पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
  2. अधिक मात्रा में सेवन पेट में जलन, एसिडिटी, आदि समस्या कर सकता है।
  3. शरीर में यदि पहले से पित्त बढ़ा है, रक्त बहने का विकार है bleeding disorder, हाथ-पैर में जलन है, अल्सर है, छाले हैं तो भी इसका सेवन न करें।
  4. आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।
  5. बीजों में एक narcotic hallucinogen, पाया जाता है जो ज्यादा मात्रा में लेने से हैंगओवर, धुंधला दिखाई देना, कब्ज, जड़ता, मतली, चक्कर आदि कर सकता है।

Arand –रिसिनस कम्युनिस Castor in Hindi

$
0
0

अरंड (arand), एरण्ड, रेंडी, या कैस्टर पूरी दुनिया में पाया जाना वाला पौधा है। इसे प्राचीन समय से भारत, अफ्रीका, चीन तथा अन्य देशों में तेल के लिए और एक दवा के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है।

यह एक औषधीय वनस्पति है। औषधि के रूप में अरंड का वर्णन चरक और शुश्रुत संहिता में मिलाता है। इसे आयुर्वेद में वातारि और वातवैरी कहा जाता है और मुख्य रूप से वात रोगों में प्रयोग किया जाता है। आचार्य शुश्रुत ने इसके दो भेद,  लाल और सफ़ेद बताएं हैं तथा इनके प्रयोग भी बताएं हैं। अरंड कड़वा, उष्ण, भारी, और उत्तम विरेचक है। यह वातरोग, कफ रोग, खांसी, दमा, बुखार, रक्तविकार, प्रमेह, त्वचा रोगों आदि में उपयोगी है।

https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/5/52/Castor_plant_seed_and_flower.jpg

अरंड के बीजों की मींगी से तेल प्राप्त होता है जिसे कैस्टर आयल कहा जाता है। बाहरी रूप से त्वचा पर लगाया जाता है और औषधि के रूप में विरेचक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके सेवन से कब्ज़ दूर होता है। यह कोष्ठशुद्धि भी करता है। अर्श, भगंदर, गुदाभ्रंश में भी इसके तेल को लेने से बिना जोर लगाए मोशन आता है।

सेवन के लिए केवल ऐसे कैस्टर आयल का प्रयोग किया जाता है जो ओरल प्रयोग के लिए सुरक्षित हो और जिसके सेवन से शरीर पर कोई दुष्प्रभाव न हो। कैस्टर आयल स्निग्ध, चिकना, गाढ़ा, चिपचिपा, तथा रंग में पिला सुनहरा सा होता है। यह हल्की गंध युक्त होता है। इसमें ग्लिसिरोल, पामिटिन, और स्टीरिन होता है। इसमें पाया जाने वाला रिसिनोलिक एसिड इसे विरेचक का गुण देता है।

यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण है, की कैस्टर के बीजों में एक बहुत विषैला पदार्थ, रिसिनिन पाया जाता है। रिसिनिन बहुत ही जहरीला पदार्थ है जो जान ले सकता है। यह पदार्थ अंकुरित होते बीजों में अधिक मात्रा में होता है। रिसिन बीजों को उबालने और भूनने से नष्ट हो जाता है

सामान्य जानकारी

एरण्ड / अरंड का पौधा सदाहरित होता है। यह छोटा वृक्ष या बड़ी झाड़ी है जो की प्रायः सड़कों के किनारे, खाली पड़े स्थानों या बंजर प्रदेशों में पाया जाता है। दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में आप इसे आसानी से सड़कों के किनारे, नाले के किनारे उगा देख सकते है। यह अकेले नहीं अपितु झुंडों में मिलता है।

  • पौधे की उंचाई: आठ से पंद्रह फुट
  • बनावट: पतला, ऊँचा, लम्बा।
  • तना: चिकना, हरा-सफ़ेद, डंडे की तरह, पोला।
  • पत्ते: हरे-लाल आभा लिए हुए, पत्र दण्ड के साथ।
  • पुष्प: नर और मादा, नर पुष्प मादा पुष्प एक ही पुष्प दण्ड पर पाए जाते हैं।
  • फल: कांटे युक्त, बाहरी हरा आवरण।
  • बीज: फल के अन्दर तीन बीज होते हैं।
  • छाल: पतली, हल्की, हरी-धूसर

एरण्ड का पौधा पूरी दुनिया में पाया जाता है। इस पौधे की कुछ उपजातियां हैं जो की देखने में एक दूसरे से कुछ भिन्न है।

एक प्रकार में पौधा ज्यादा ऊँचा होता है, इसके फल भी बड़े, बीज लाल, और अधिक तेल देने वाले होते हैं। परंतु इससे मिलाने वाला तेल अच्छी क्वालिटी का नहीं होता और खाने के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसे मशीनों, इंधन की तरह प्रयोग किया जाता है।

एक अन्य प्रकार के कैस्टर पौधे छोटे होते हैं। यह एक वर्षीय पौधे होते हैं, और बीज छोटे-सफ़ेद और भूरे धब्बे युक्त होते हैं। इसके बीजों से निकालने वाला तेल अच्छी क्वालिटी का होता है और खाने के प्रयोग के लिए उपयुक्त है।

  • वानस्पतिक नाम: रिसिनस कम्युनिस
  • कुल (Family): यूफॉरबीऐसिऐइ
  • औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: पत्ते, तेल, बीज और जड़  / मूल
  • पौधे का प्रकार: झाड़ी
  • वितरण: पूरे भारत वर्ष के गर्म प्रदेशों में
  • पर्यावास: उष्ण-बंजर प्रदेश

एरण्ड के स्थानीय नाम / Synonyms

  1. संस्कृत:  एरण्ड, उत्तानपत्रक, उत्तानपत्र, करपर्ण, करपर्णा, गन्धर्व, चित्र, अरण्ड, अरंड, आमंड, तरुण, दीर्घदण्डक, नागकर्ण, यक्षहस्त, वर्द्धमान, व्याघ्रपुच्छ, स्निग्ध, हस्तिकर्ण, वातारि, वातवैरी,  Gandharvahasta, Vatari, Panchagula, Chitra, Urubu, Rubu
  2. हिन्दी: एरण्ड Arand, Arandi, Arcnd, Erand, Erandi, Erend
  3. अंग्रेजी: Castor, Castor oil plant
  4. असमिया: Eda, Era
  5. बंगाली: भेरंडा Bherenda
  6. बिहार: एंड
  7. गुजराती: एरंडो Erandio, Erando
  8. कन्नड़: Haralu, Oudala gida
  9. Kashmiri: Aran, Banangir
  10. मलयालम: Avanakku
  11. मराठी: एरंडी, यरन्डीचा Erand
  12. उड़िया: Jada, Gaba
  13. पंजाबी: Arind
  14. तमिल: Amanakku
  15. तेलुगु:  Amudapu veru
  16. उर्दू:  Bedanjir, Arand

एरण्ड का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification

  1. किंगडम  Kingdom: प्लांटी  Plantae – Plants
  2. सबकिंगडम  Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
  3. सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा Spermatophyta  बीज वाले पौधे
  4. डिवीज़न Division: मैग्नोलिओफाईटा  Magnoliophyta – Flowering plants फूल वाले पौधे
  5. क्लास Class: मैग्नोलिओप्सीडा Magnoliopsida – द्विबीजपत्री
  6. सबक्लास Subclass: रोसीडए Rosidae
  7. आर्डर Order: यूफॉरबिएल्स Euphorbiales
  8. परिवार Family: यूफोरबिएसीएई Euphorbiaceae – Spurge family
  9. जीनस Genus: रिसिनस Ricinus L. – ricinus P
  10. प्रजाति Species: रिसिनस कम्युनिस Ricinus communis L.

एरण्ड के संघटक Phytochemicals

  1. Fatty oil (42 to 55%):
  2. Proteic substances (20 to 25%)
  3. Lectins (0.1 to 0.7%): including ricin D (RCA-60, severely toxic), RCA-120 (less toxic)
  4. Pyrridine alkaloids: ricinine (up to 0.3%)
  5. Triglycerides: chief fatty acids ricinoleic acid (12-hydroxyoleic acid, 85 to 90%)
  6. Tocopherols (vitamin E)

एरण्ड मूल के आयुर्वेदिक गुण और कर्म

स्वाद में अरंड मूल मधुर, गुण में गुरु और स्निग्ध और वीर्य में उष्ण है। यह विपाक में मधुर है और वात रोगों की मुख्य औषधि है।

  • रस (taste on tongue): मधुर, कटु, कषाय,
  • गुण (Pharmacological Action): गुरु, स्निग्ध
  • वीर्य (Potency): उष्ण
  • विपाक (transformed state after digestion): मधुर

यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। यह शरीर में प्यास, पसीना, जलन, आदि करती हैं। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।

विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है।

प्रायः मधुर तथा लवण रस के पदार्थों का विपाक मधुर होता है।  मधुर विपाक, भारी, मल-मूत्र को साफ़ करने वाला होता है। यह कफ या चिकनाई का पोषक है। शरीर में शुक्र धातु, जिसमें पुरुष का वीर्य और स्त्री का आर्तव आता को बढ़ाता है। इसके सेवन से शरीर में निर्माण होते हैं।

कर्म  Principle Action

  • अनुलोमन:  द्रव्य जो मल व् दोषों को पाक करके, मल के बंधाव को ढीला कर दोष मल बाहर निकाल दे।
  • कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे।
  • वातहर: द्रव्य जो वातदोष निवारक हो।
  • वृष्य: द्रव्य जो बलकारक, वाजीकारक, वीर्य वर्धक हो।
  • विरेचन: द्रव्य जो पक्व अथवा अपक्व मल को पतला बनाकर अधोमार्ग से बाहर निकाल दे।
  • वाताघ्न: द्रव्य जो वात को कम करे।

एरण्ड के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Castor in Hindi

अरंड को आयुर्वेद में मुख्य रूप से वात रोगों जैसे की जोड़ों में दर्द, गाउट, रूमेटिज्म, साइटिका, पीठ में दर्द, आदि में प्रयोग किया जाता है। इसकी जड़ वात-कफ शामक है तथा पित्तवर्धक है। परन्तु इसका तेल पित्त शामक है।

रेंडी का तेल सूजन दूर करने वाला, पीड़ाहर, भेदन, विरेचक, स्नेहन, कफघ्न है। यह बुखार और त्वचा रोगों में लाभप्रद है घरेलू उपचार के रूप में प्रयोग किया जाता है। तेल के आंतरिक प्रयोग से कोष्ठ साफ़ हो जाता है। विरेचक की तरह प्रयोग करने तथा वात व्याधियों में तेल की लगभग 6 से 12 ml की मात्रा लेनी चाहिए।

तेल जो आंतरिक प्रयोग के लिए सुरक्षित हो उसी को प्रयोग करना चाहिए।

अर्श, भगंदर, गुद्भ्रंश piles, fistula, anal prolapse

  • एरंडपाक Eranda Paka का सेवन करें।
  • कोमल प्रकृति के लोगों में इसका सेवन अरुचि उत्पन्न करता है।

विरेचन laxative

  • कैस्टर आयल को विरेचन के लिए प्रयोग करते हैं।
  • अरंड तेल दस मिलीलीटर की मात्रा में दूध के साथ रात में लें। अथवा
  • अरंड मूल का काढा विरेचक के रूप में प्रयोग किया जाता है। अथवा
  • Gandharva Haritaki Churna का सेवन करें।

वातरक्त gout

एरंड का तेल दस मिलीलीटर की मात्रा में दूध के साथ लेना चाहिए।

सूजन, आमवात, गठिया, जोड़ों का दर्द joint pain, swelling

पत्तों को गर्म करके प्रभावित स्थान पर बांधना चाहिए।

वात रोग, वात शूल, कमर दर्द,  गृध्रसी, पार्श्वशूल, हृदयशूल, आमवात, संधिशोध

  • अरंड की जड़ दस ग्राम और सोंठ के चूर्ण पांच ग्राम को लेकर काढ़ा बनाकर सेवन करें।
  • प्रभावित स्थान की अरंड तेल से मालिश करें। अथवा
  • अरंड तेल दस मिलीलीटर की मात्रा में दशमूल क के काढ़े अथवा सोंठ के काढ़े, के साथ दिन में दो बार लें। अथवा
  • Gandharvahasthadi Eranda Thailam का प्रयोग करें।

पीठ में दर्द

कैस्टर आयल एक चम्मच, को पानी के साथ दिन में दो बार लें।

मोच आना, एड़ी मुड़ जाना

कैस्टर आयल से मालिश करें।

दूध के स्राव में वृद्धि करने के लिए

  • तेल से ब्रैस्ट मसाज से दूध स्राव में वृद्धि होती है।
  • इसी प्रभाव के लिए पत्तों की पुल्टिस को भी ब्रैस्ट पर बांधा जाता है।

ब्रेस्ट निप्पल के आस-पास त्वचा फट जाना

अरंड तेल लगायें।

ब्रेस्ट में सूजन

अरंड के बीजों की गिरी को सिरके में पीस कर लगाएं।

पेट के कीड़े

अरंड के पत्तों का रस गुदा पर दिन में दो तीन बार लगाया जाता है।

मासिक धर्म न आना

अरंड के पत्तों को गर्म कर नाभि के पास लगाना चाहिए।

नाड़ी व्रण

इसके कोमल पत्तों को पीसकर लगाते हैं।

बेड सोर

अरंड तेल को लगाएं।

बिगड़े घाव

पत्तों को पीस कर प्रभावित स्थान पर लागएं।

मस्स्से, तिल Corns, Callouses and Warts

  • कैस्टर आयल को रोजाना प्रभावित स्थान पर सुबह और रात को सोते समय लगायें। अथवा
  • कैस्टर आयल को सल्फर के साथ मिलाकर बार-बार लगायें।

अन्य उपयोग

  1. तेल को इंधन की तरह, लैंप आदि की तरह प्रयोग किया जाता है।
  2. तेल को चमड़े के समान पर लगाया जाता है।
  3. तेल को मशीनों में में भी डाला जाता है।
  4. साबुनों को बनाने में तेल का प्रयोग होता है।
  5. तेल निकालने के बाद जो खली बचती है उसे खाद की तरह प्रयोग करते हैं।

सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications

  1. इसे आँतों के रोगों, intestinal obstruction, acute inflammatory intestinal diseases, appendicitis, abdominal pain of unknown origin, में प्रयोग न करें।
  2. इसे गर्भावस्था  during pregnancy and while nursing और स्तनपान कराते समय न लें।
  3. कैस्टर आयल का ज्यादा सेवन गैस्ट्रिक इरीटेशन, उलटी, कोलिक, और लूज़ मोशन कर सकता है।
  4. कैस्टर आयल किडनी, ब्लैडर, बाइल डक्ट, या आँतों में इन्फेक्शन में न लें। इसे पीलिया और मूत्रकृच्छ में भी न लें।
  5. लम्बे समय तक प्रयोग इलेक्ट्रोलाइट, पोटैशियम आयन आदि की शरीर में कमी करता है।
  6. कैस्टर बीन्स बहुत जहरीले होते हैं। इनका सेवन कभी नही करना चाहिए।

कैस्टर बीन के जहर का असर प्रोटीन सिंथेसिस रुक जाना, खून की उलटी, पतले दस्त, किडनी में सूजन, पानी की कमी, इलेक्ट्रोलाइट की कमी, सिर्कुलेटरी सिस्टम का फेल हो जाना, severe gastroenteritis with bloody vomiting and bloody diarrhoea, kidney inflammation, loss of fluid and electrolytes and ultimately circulatory collapse आदि।

Viewing all 114 articles
Browse latest View live